Saturday, November 21, 2015

यूथ की गाँधीगिरी; सर्च से रिसर्च तक

यूथ की लाइफ स्टाइल में गांधीजी के जीवन मूल्यों की झलक दिखाने की जोर-शोर से हो रही चर्चा सुनकर मैं अक्सर टेंशन में आ जाता हूँ। सोचने लगता हूँ कि आखिर गड़बड़ कहाँ हो गई है। गाँधी जी के जीवन मूल्यों में या फिर यूथ की लाइफ स्टाइल में?
मेरे साथ कोई सर्किट तो रहता नहीं जो पता लगाकर बताए। इसलिए मैंने खुद ही सोचना शुरु कर दिया। सोचते-सोचते जब मैं किसी भी नतीजे पर नहीं पहुँचा तो मेरे 'माइन्ड' में 'केमिकल लोचा' हो गया।
जो चीज होती ही नहीं है, उसके होने का बोध करने के लिए हमारे यहाँ रिसर्च की जाती है। इसलिए सर्च करने पर भी जब मुझे यूथ की लाइफ स्टाइल में गाँधी जी के जीवन मूल्यों के दर्शन नहीं हुए तो मैंने इस पर रिसर्च शुरु कर दी। शोध करते ही मुझे यह बोध हो गया कि हमारा आज का यूथ गाँधी जी के जीवन मूल्यों का साक्षात 'पाकेट बुक एडीशन' है। अर्थात् अच्छा-सच्चा संक्षिप्त और सारगर्भित गाँधीवादी।
गाँधी जी ने 'देश की आजादी' की लड़ाई लड़ी और हमारा आज का यूथ 'खुद की आजादी' की लड़ाई लड़ रहा है। आजादी के प्रति उसकी ललक ठीक गाँधी जी जैसी ही है। इसलिए भले ही पूरी तरह से ना सही लेकिन खुद के अनुकूल मामलों में तो वह संक्षिप्त गाँधीवादी ही है।
अहिंसा में आज के यूथ की अटूट आस्था है। इसलिए वे ज्यादातर बातें मोबाइल फोन पर ही करना पसंद करते हैं। वह तुनक मिजाजी जो वे मोबाइल फोन पर बतियाते हुए करते हैं अगर आमने-सामने करने लगें तो हिंसा की सम्भावना बढ़ जाएगी। कितनी खूबसूरती से एडजस्ट किया है आज के यूथ ने अहिंसा को अपनी लाइफ स्टाइल में।
मोबाइल फोन पर जब वह किसी दूसरे को मिसकॉल देता है, तो उसे कड़का या कंजूस समझना सरासर गलत है। मिसकॉल के जरिये वह शरारत नहीं अपितु सत्याग्रह करता है। मिसकॉल यानी सामने वाले को एक अत्यन्त विनम्र आग्रह कि सत्य को जानने के लिए मुझे कॉल बैक करो। सत्याग्रह गांधी जी की तकनीक थी और मिस कॉल, गाँधीजी की उस तकनीक को अपनाने के निमित्त हमारे यूथ की मौलिक तकनीक।
गाँधी जी के ड्रेस-सेन्स की खासियत यह थी कि वे यथासम्भव कम से कम कपड़े पहनते थे। हमारा आज का यूथ भी अपने बदन पर ज्यादा कपड़े लादना पसन्द नहीं करता। वह गाँधी जी के ड्रेस-सेन्स का मर्म समझता है, इसलिए कम से कम कपड़ों में काम चलाना अपना धर्म समझता है।
गाँधी जी जीवन विज्ञान को अधिक महत्व देते थे, किताबी ज्ञान को नहीं। उनके इस विचार को स्वीकार करने की वज़ह से वह किताबों को ज्यादा कष्ट नहीं देता, जीवन की अन्य समस्याओं के समाधान के लिए सतत अनुसंधानशील रहता है। अपनी आत्मकथा में गाँधी जी ने अपनी हैंडराइटिंग $खराब होने पर अफसोस व्यक्त किया था। हैंडराइटिंग तो हमारे आज के यूथ की भी अच्छी नहीं है। गाँधी जैसी ही है। लेकिन उस पर अफसोस व्यक्त करने का वक्त और अवसर उसके पास नहीं है।
विभिन्न आन्दोलनों का संचालन एवं नेतृत्व करना गाँधी जी की महानता का परिचायक है। हमारे यूथ ने गाँधी जी की इस खूबी को तगड़े ढंग से ग्रहण किया है। इसलिए वह एडमीशन से लेकर एग्जामिनेशन तक आन्दोलित ही रहता है। अपनी माँगों को लेकर वह तब तक धरना देता है जब तक कि पुलिस उसे उठाकर थाने में धर ना दे।
हाँ, एक बात वह गाँधी जी की नहीं भी मानता। वह यह कि कोई अगर तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल भी आगे कर दो। यहाँ उसका गाँधी जी से क्लीयरकट मतभेद है। वह साफ कहता है कि-
जो तौ कू काँटा बोए, ताइ बोव तू भाला।
वह भी याद रखेगा भइया पड़ा किसी से पाला॥

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


सुरेन्द्र दुबे (जयपुर) की पुस्तक
'डिफरेंट स्ट्रोक'
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Friday, November 20, 2015

महिला दिवस बनाम पुरुष रात्रि

रेल बजट प्रस्तुत करते हुए रेलमंत्री ने कॉलेज में पढने वाली लड़कियों को मुफ्त रेल यात्रा का तोहफा दिया। लड़कियोंं को तो सभी तोहफा देते हैं। यही तोहफा लड़कों को भी मिलना चाहिए। लेकिन महिला सशक्तिकरण तभी तो होगा जब लड़कियों को रेलवे का फ्री पास मिलेगा और लड़कों को किराया देना पड़ेगा। इससे मैं यह समझ पाया कि हमारे यहाँ महिला सशक्तिकरण पुरुष अशक्तिकरण पर निर्भर करता है।
महिला सशक्तिकरण की सरकारी योजनाओं का रिजल्ट यह आया कि मेरे घर में पुरुष निशक्तिकरण का अभियान शुरू हो गया। अपनी ही पत्नी के सामने अब मेरी हालत ठीक वैसी है जैसी कि शेरनी के पिंजरे में बांध दिए गए बकरे की होती है। वह अक्सर मुझे कह देती है कि आप में तो अक्ल नहीं है और मैं सिर झुकाकर कहता हूँ-सही बात है। वैसे ही घर-गिरहस्ती के मामलों मेें महिलाएँ ज्यादा होशियार होती है तथा पुरुष एकदम फिसड्डी। कारण यह है कि घर में घुसते ही पुरुष की हस्ती गिर जाती है, इसलिए घर की व्यवस्था घर गिरहस्ती कही जाती है।
पुरूषों की दुर्दशा पर सोचते-सोचते मुझे नींद आ गई। सपने में मेरी रेलमंत्री से भेंट हुई। मैंने उनसे पूछा कि आपकी सरकार महिलाओं की इतनी हितैषी है तो फिर लोक सभा में महिला आरक्षण का विधेयक क्यों पास नहीं करवा पाई। उन्होंने जवाब दिया देखो इसमेें एक टेक्नीकल अड़चन है। ये बिल पास होने पर लोक सभा और विधान सभाओं की तेंतीस प्रतिशत सीट्स महिलाओं के लिए आरक्षित हो जाएगी। फिर हमें ऐसे ही तेंतीस प्रतिशत सीट्स पुरूषों के लिए भी आरक्षित करनी पड़ेगी। ऐसे में टेक्नीकल प्रॉब्लम ये है कि बची हुई चोंतीस प्रतिशत सीट्स पर जो लोग चुनकर आएंगे, वे क्या कहलाएँगे?
महिला सशक्तिकरण की योजनाओं का सबसे ज्यादा नुकसान मुझे हुआ। क्योंकि मेरी पत्नी जरूरत से ज्यादा सशक्त हो गई। सशक्त होते ही उसका बौद्धिक स्तर पहलवानों के बराबर हो गया। कल ही मुझे उपदेश देते हुए कहने लगी कि ''जब तक आप महाकवि तुलसीदासजी की भाँति पत्नी के प्रति अपने मन में प्यार की भावना नहीं जगाओगे तब तक बड़े कवि नहीं कहलाओगे।'' मैंने कहा कि मैं भी तो पत्नी से खूब प्यार करता हूँ! वह बोली-''खुद की पत्नी से प्यार करो तो जानूँ।''
अपनी कमजोर नस पकड़ में आते देख मैंने भी आक्रामक नीति अपना ली। कहते हैं कि आक्रमण ही सुरक्षा की सर्वश्रेष्ठ तकनीक है। इसलिए मैंने उससे पूछा-''तुम्हेें किसने कहा कि तुलसीदास जी अपनी पत्नी से प्यार करते थे?'' वह बोली-''कौन नहीं जानता कि तुलसीदास जी की पत्नी रूठकर मायके चली गई थी तो वे भी उसको मनाने के लिए पीछे-पीछे चल दिए। पहले तो जान जोखिम डाल कर उफनती हुई नदी को पार किया। रात के अंधेरे में ससुराल पहुँचे तो बालकनी से साँप लटक रहा था। वे उसे रस्सा समझकर उसी के सहारे बालकनी में चढ़ गए। इसे कहते हैं अपनी पत्नी के प्रति सच्चा प्यार।''
मैंने कहा-''री बावली। तुम इस कहानी को ठीक से समझ ही नहीं पाई। वे पत्नी को मनाने नहीं गए होंगे। मना करने गए होंगे। मुझे तो ऐसा लगता है कि उन्होंने साँप को रस्सा समझ कर नहीं, साँप समझकर ही पकड़ा होगा। सोचा होगा कि गुस्साई पत्नी से सामना हो इससे अच्छा है कि उससे पहले साँप ही काट खाए। लेकिन शायद साँप ने भी कह दिया होगा कि मेरे काट खाने से तुम्हारी जान नहीं जाएगी। तुम तो वहीं जाओ। वह ही तुम्हारा दिमाग खाएगी। तब बेचारे तुलसीदास जी क्या करते?''
खैर, महिलाओं के पक्ष में कानूनी प्रावधानों की संख्या इतनी तेजी से बढ़ी जितनी तेजी से तो खुद महिलाओं की संख्या नहीं बढ़ी। आपने राष्ट्रीय महिला आयोग, महिला वर्ष, महिला दिवस के बारे में तो सुना या पढ़ा होगा लेकिन राष्ट्रीय पुरूष आयोग, पुरुष वर्ष, पुरुष दिवस के बारे में कभी कोई चर्चा भी नहीं सुनी होगी। मैं तो सरकार से कहता हूँ कि महिला दिवस की तरह पुरुष का दिवस भले ही मत मनाओ 'पुरुष रात्रि' ही मना लो। लेकिन मेरी बात को सुनने वाला कोई नहीं है क्योंकि लिए समाज के माथे पर कन्या भ्रूणहत्या का कलंक लगा हुआ हो उसमें यह सब तो होना ही है। महिलाओं के लिए आयोग और पुरुषों के लिए अभियोग।
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


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Thursday, November 19, 2015

जाँच रिपोर्ट-तीन

गलती से ही सही लेकिन हमारी सरकार ने एक जोरदार काम किया। उस विमान को बहादुरीपूर्वक बचा लिया, जिसका अपहरण ही नहीं हुआ।
सारी रात हड़कम्प मचा रहा और सुबह यह पता चला कि विमान में अपहरणकर्ताओं का कुछ पता नहीं चला। गलतफहमी में ही अफरातफरी मच गई। बेचारे कमाण्डोज, डॉक्टर्स और फायर ब्रिगेड वाले ही नहीं देश के गृहमंत्री और प्रधानमंत्री तक पूरी रात परेशान रहे।
खैर, मैंने इस समूची घटना की राष्ट्रहित में गम्भीरतापूर्वक जांच करके रिपोर्ट पेश की तो उसे पढ़कर जिस गलतफहमी की वजह से यह घटना घटी उस गलतफहमी तक को गलतफहमी हो गई!
मेरी समूची जांच रिपोर्ट इस प्रकार थी-
देश में कुल मिलाकर ठीक-ठाक हवाई अड्डे तीन- उनमें से भी दो तो बन्द रहते हैं और एक खुलता ही नहीं।
जो हवाई अड्डा खुलता ही नहीं, उस पर हवाई जहाज खड़े तीन- उनमें से भी दो तो खराब और एक उड़ता ही नहीं ।
जो हवाई जहाज उड़ता ही नहीं, उसे नियंत्रित करने वाले कंट्रोल टॉवर तीन- उनमें से भी दो तो फिजूल और एक पर खुद का ही कन्ट्रोल नहीं।
जिस कंट्रोल टॉवर पर खुद का ही कन्ट्रोल नहीं, उस पर तैनात सरकारी अधिकारी भी तीन- उनमें दो तो गायब और एक मिलता ही नहीं।
जो सरकारी अधिकारी मिलता ही नहीं, उसने संदेश भेजे तीन- उनमें से दो तो गलत और एक पहँुचा ही नहीं।
जो संदेश पहँुचा ही नहीं, उसे रिसीव करने वाले पायलट भी तीन- उनमें से भी भी दो तो बहरे और एक सुनता ही नहीं।
 जो पायलट सुनता ही नहीं, उसे दिखे अपहरणकर्ता तीन-  उनमें से भी दो तो अदृश्य और एक के शक्ल ही नहीं।
जिस अपहरणकर्ता के शक्ल ही नहीं, उसे पहचानने वाले पेसेंजर भी तीन-उनमें से भी दो तो बेवकूफ और एक के अक्ल ही नहीं।
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


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Wednesday, November 18, 2015

हाल तबीयत का

बीमार दोस्त की तबीयत का हाल पूछने मैं अस्पताल पहुँचा तो पता चला कि अस्पताल तो खुद बीमार पड़ा हैै। अस्पताल का इन्फेक्शन लग जाने मैं बीमार हो गया। मैंने भी सोच लिया कि चाहे जो हो जाए ऐलोपैथी के डाक्टर्स से तो मैं अपना इलाज नहीं ही करवाऊँगा। क्योंकि जिस पैथी में मेडिसिन ही एक्सपायर हो जाती हो उसमें मरीज बेचारा कैसे बचेगा? लिहाजा मैंने घर पर  रहकर अपनी जीवन लीला आयुर्वेद और होम्योपैथी के चिकित्सकों के हवाले कर दी।
अब मेरे घर पर तबीयत का हाल पूछने वालों का ताँता लग गया। सबसे पहले तो 'तबीयत पूछुओं' के कुछ पेशेवर समूह आए। उनके पास तबीयत पूछने के अलावा और कोई काम होता ही नहीं। वे रात-दिन इसी ताक में रहते हैं कि कोई बीमार पड़े तो वे अपना काम शुरू करें। आते ही बताने लगते हैं कि वे कल किसकी तबीयत पूछने गए थे? उसे क्या बीमारी है? वह ठीक हो सकेगा या नहीं। फिर बताने से भी नही चूकते कि मेरी तबीयत पूछने के बाद उन्हें किस-किस की तबीयत पूछने के लिए जाना है। उन्हें यह बताने का शौक होता है कि जिस रोग से मैं पीडि़त हूँ वह रोग पहले किस किसको अपना शिकार बना चुका है। वे सुनना बिल्कुल नहीं चाहते, सिर्फ बोलना चाहते हैं। लम्बे समय तक बैठे रहकर वे बार-बार बताते हैं कि अब उन्हें अमुक आदमी की तबीअत पूछने जाना है। दरअसल वे तबीअत पूछने का ही काम करते हैं। इस काम में वे पूरी तरह बिजी हैं। जिस दिन कोई बीमार नहीं पड़ा पता नहीं वे क्या करेंगे? कहाँ जाएँगे? मुझे तो लगता है कि बेचारे बेरोजगार हो जाएँगे।
मेरी तबीयत पूछने वालों में दूसरा वर्ग उन लोगों का था जिनसे मेैंने पैसा उधार ले रखे हैं। ऐसे सभी लोग वाकई चिन्तित नजर आए। यह पता करना मुश्किल था कि वे मेरे स्वास्थ्य के लिए चिन्तित थे या अपने इन्वेस्टमेन्ट की रक्षा के लिए। लेकिन वे बेहद चिन्तित थे। आये तो वे लोग भी थे जिनमेंं मैं पैसे माँगता हूँ। वे शायद इस बात की तसल्ली करने आए कि पैसे चुकाने ही पड़ेंगे या वैसे ही काम चल जाएगा?
खैर जितने लोग मेरी तबीयत पूछने आए उन सब में एक बड़ी समानता थी। दरअसल वे सब शायद इलाज के  मामले में  डाक्टर्स के भी पितामह थे। सबके सब उसी बीमारी के स्पेशलिस्ट थे जिससे मैं पीडि़त था। दवाओं के इतने विकल्प तो समूचे चिकित्सा जगत को भी नहीं पता होंगे। जो आता वह मुझे नई और अचूक दवा बता जाता। एक बोला-''यह दवा लो, शाम तक ठीक हो जाओगे।'' मैंने कहा ठीक है ले लूँगा। आप ऐसा करना कि वो चिकित्सक जी अभी मुझे देखने आ रहे हैं उसे कह देना कि वह सिर्फ मेरी तबीयत पूछकर चले जाएँ। दरअसल हमारे यहाँ जिसका जो रोल है वह उसे नहीं करना चाहता। हर कोई किसी दूसरे के रोल पर एन्क्रोचमेंट करना चाहता है।
मेरी तबीयत पूछने वालों में कुछ तो इतने खतरनाक शुभचिन्तक थे कि मेरी बीमारी की मारक क्षमता को महिमा मंडित करने लगे। कहते फलां-फलां को यहीं बीमारी हुई थी। ये बीमारी तो आज भी जिन्दा है लेेकिन उनमेेें से कोई भी नहीं बचा जिन्हें ये हुई थी। ऐसे लोगों ने डरा-डरा कर मुझे बीमार पटके रखा। मैं उन सबसे परेशान हो गया। उनकी बातें सुन-सुनकर मुझे एग्जर्सन हो जाता था। लेकिन मैंं भी यह सोचने लगता कि अगर ये मेेरी तबीअत पूछने नहीं आते तो मुझे ज्यादा परेशानी होती यह सोचकर कि मेरे होने का कोई महत्व भी है कि नहीं।
एक दिन बिस्तर पर लेटे-लेटे मुझे उस दोस्त की याद आई जिसकी तबीयत का हाल जानने के लिए मैं अस्पताल गया था और खुद बीमार पड़ गया था। मैंने अस्पताल में फोन करके कहा-फलां वार्ड के बत्तीस नंबर बेड के पेशन्ट से बात कराओ। जवाब मिला कि पेशन्ट तो नहीं है। मैंने पूछा-कहाँ गया है? जवाब मिला-ऑपरेशन थिएटर में। मैेंने पूछा-कब आएगा? जवाब मिला-आएगा या नहीं आएगा या कब आएगा मैं कैसे बता सकता हूँ?
मैंने सोचा कि हम सचमुच बहुत तरक्की कर रहे हैं। पहले कुत्ते की मौत मरते थे, अब अस्पताल की मौत मर रहे हैं। और जो अपने घर पर रहकर इलाज कराएँगे उनमें से कुछ तबीयत पूछने वालों के हत्थे चढ़ जाएंगे।
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


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Monday, November 16, 2015

घर-घर में कश्मीर

वैसे प्रॉब्लम और गर्लफ्रेण्ड में कोई खास फर्क नहीं होता। गर्लफ्रेण्ड खुद अपने आप मेें एक प्रॉब्लम होती है जो अपने आप बॉयफ्रेण्ड के गले पड़ी रहती है। प्रॉब्लम भी गर्लफ्रेण्ड की तरह हर पल आपके आस-पास मौजूद रहकर नया टेंशन क्रिएट करती रहती है।
मेरी भी एक गर्लफ्रेण्ड है- मिस अनछुई। उसका अफेयर तो मेरे साथ चला लेकिन शादी किसी और के साथ हो गई। शादी के बाद वे मेरे बराबर वाले मकान में आकर रहने लगे। प्रेम से रहना उसके बस की बात थी नहीं, सो वे आपस में झगड़े बिना रह ही नहीं सकते थे। एक रात चिल्लाने की आवाजें सुनकर मैं अचानक जागा तो पता चला कि वे गाली-गलौच में राष्ट्रीय स्तर की शब्दावली पर उतर आए हैं। मैं इस स्थिति का चुपचाप मजा लेता रहा। मौका दर मौका उनकी गृहस्थी को बाहर से समर्थन भी देता रहा।
मेरे और उनके घर के बीच एक दुबली-पतली अधबनी दीवार है। इस दीवार को बनते और मिटते हुए सभी ने अनेक बार देखा है। पड़ौसियों की राय में वही नियंत्रण रेखा है।
मेरी भलमनसाहत की असलियत जब उसके हजबेण्ड की समझ में आई तो वह बहुत भन्नाया। इसके अलावा वह और कर भी क्या सकता था। पहले तो उसने मुझे चेताया लेकिन जब मैं नहीं माना वह झल्लाया। एक दिन उसने मोहल्ले के जिम्मेदार लोगों के सामने मेरी एक्टीविटीज को 'क्रॉस बॉर्डर टेरेरिज्म' बताया।
एक दिन पति-पत्नी में लड़ाई छिड़ गई। बढ़ते-बढ़ते बात इतनी बढ़ गई कि शोर-शराबे को सुनकर घर के बाहर भीड़ जमा हो गई। पड़ौसियों की मौजूदगी में पति ने पत्नी से कहा कि आज से लड़ाई बन्द कर दो। इसी में हम दोनों की भलाई है। अब मैं तुम्हारी बातों और हरकतों पर रिएक्ट नहीं करुँगा। अगले एक सप्ताह तक अपनी इस घोषणा पर कायम रहूँगा। उस क्राइसिस में ऐसा प्रपोजल देना सचमुच बहादुरी भरा काम था। बाद में पता चला कि कूटनीति की भाषा में यह पति द्वारा किया गया एक तरफा संघर्ष विराम था।
जब उस एक तरफा संघर्ष विराम का कोई खास नतीजा नहीं आया तो पति ने पत्नी से कहा कि बातचीत के लिए टेबल पर आओ। पत्नी बोली कि मैं बातचीत के लिए तब ही टेबल पर आ सकूंगी जब तुम मेरे प्रेमी को भी बातचीत मेें शामिल करो, अर्थात् वार्ता को त्रिपक्षी बनाओ।
बेचारा-बेसहारा पति जो हर कीमत पर अपने घर में शान्ति चाहता था, यह शर्त कैसे मानता? ऐसा लगने लगा कि अचानक दिखाई देने वाला रास्ता दुर्गम पहाड़ी दर्रोंं में कहीं खो गया है। एक खुशहाल मोहल्ले में उसके घर का हाल कश्मीर समस्या जैसा हो गया। ताजा समाचार यह है कि शान्ति की कब्र पर अशान्ति का परचम फहरा रहा है। उनसठ वर्षों में लोग कश्मीर में जाकर घर तो नहीं बना सके हैं लेकिन घर-घर में कश्मीर अब दबे पाँव चला आ रहा है।
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


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Saturday, November 14, 2015

बीमारियों का पैकेज दिल

 अमरिकन और यूरोपीयन कम्पनीज से कम से कम एक गुण तो सीखने लायक है। दरअसल वे बीमारी का नाम, इन्वेस्टीगेशन के इन्स्ट्रूमेंट्स और मेडिसिन्स को एक साथ बेचते हैं। बीमारी के नाम से पैकेज डील बनाते हैं। हमारे मंत्रीजी कुछ न कुछ करने की नई-नई बेताबी के साथ विदेश जाते हैं और नई-नई बीमारी का इलाज खरीद लाते हैं, भलेे ही वह बीमारी यहाँ हो ही नहीं।
एक रात सपने मे मैं स्वास्थ्य मंत्री बना तो ऐेसे ही एक नई-नई अंजान बीमारी का इलाज खरीद लाया। आने पर लोगों ने  कहा कि इस बीमारी का नाम तो हमने सुना ही नहीं तो मैंने भी झट कह दिया कि अब अगले कुछ वर्षों तक तुम सिर्फ इसी बीमारी का नाम सुनोगे और तब तक सुनते रहोगे जब तक कि वे हमें बेचने के लिए किसी नई बीमारी और उसके इलाज का एलान नहीं कर देतेे।
वे बेच कर खुश और हम खरीद कर। बीमारियों की इस बीमार खरीद फरोख्त ने विश्व में एक बीमार भाईचारे को जन्म दिया। शामत तो आफिसर्स की आ जाती है। वे उस बीमारी को यहाँ खोजने में जुट जाते हैं। अगर वह बीमारी नहीं भी मिलती तो उससे मिलती-जुलती बीमारी खोज लाते हैं। अगर मिलती जुलती बीमारी भी नहीं मिलती तो फिर वे किसी भी उपलब्ध बीमारी के इलाज में उन उपकरणों और दवाओं को झोंक देते हैं। आखिर बजट का कन्जमशन भी तो आपको लायक सिद्ध करता है।
सबसे बुरी हालत तो डाक्टर्स की है। वे एक बीमारी के इलाज में महारथ हासिल करने की कोशिश कर ही रहे होते है कि  नई आयातित बीमारी उनके गले की फाँस बन जाती है। मुझे तो लगता है कि नई-नई आयातित बीमारियों ने उनकी नजर, दिमाग और रवैये को ही बीमार कर दिया है।
पिछले दिनों मैं एक डाक्टर के पास गया। मैंने अपना परिचय देते हुए उसे बताया कि मैं कवि हूँ। इतना सुनते ही उसने मुझे तपाक से पूछ लिया कि आप कब से कवि हैं? यानी ये बीमारी आपको कब से हैं? मैंने पूछा-क्या मतलब? उसने कहा-यानी आपकी उम्र कितनी है? मैंने जवाब दिया-अड़तालीस साल। बीमारी बहुत पुरानी है। पहले कभी कहीं इसका इलाज करवाया? मैंने जवाब दिया नहीं। उसने कहा-तब तो ये बीमारी लाइलाज हो चुकी है। जाओ और बहरों के मोहल्ले में रहनेे लग जाओ। बस यही इलाज है। ऐसा करने के बावजूद ये बीमारी पूरी तरह ठीक तो नहीं होगी लेकिन और ज्यादा बढ़ेगी भी नहीं।
खैर, उनसे मिलकर लौटते हुए मुझे लगा कि देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए एक काम तो हम कर ही सकते हैं। वह यह कि हम नई-नई बीमारियों की ऐलोपैथी में खोज करके विदेशी कम्पनीज को बेच दें। बाद में वे उसका उपचार ढूँढे। जाँच के उपकरण विकसित करें तथा इलाज के लिए दवा बनाकर सारी दुनिया में बेच दें। उनकी भी कमाई और अपनी भी  कमाई।
यह दिव्य-विचार आते ही मैंने पाँच-सात बीमारियाँ तो आनन-फानन में ढूँढ निकाली। अब उनके अंग्रेजी नाम रखने की देर है। नाम में अगर एंजीटाइटिस, इन्फ्लेमेशन, मीनिया, सिन्ड्रोम जैसे शब्द जोड़ दो तो और भी अच्छा। जो बीमारियाँ मैंने खोजी उनके बारे में बताता हूँ।
सबसे पहली और बड़ी बीमारी है एज्हसटाइटिस। एज्हस का फुलफार्म है- ए जे एच एस यानी अपने आपको ज्यादा होशियार समझना। बीमारी नहीं ये तो महामारी है। हर कोई इसका शिकार है। दूसरी बीमारी है बीसीडी मीनिया। बीसीडी यानी अपनी हैसियत को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाना। ये बीमारी महिलाओं में ज्यादा पाई जाती है। तीसरी बीमारी आजकल के युवाओं की  है। बीमारी का नाम है बीएसएच बीएसजेड। यानी बाहर से हीरो भीतर से जीरो।
सभी बीमारियों की खासियत यह होती है कि आप किसी को भी बीमारी के सिमटम्स बताते हैं तो सुनने वाले को लगता है कि यह बीमारी उसको खुद को भी है। आप भी ऐसी बीमारियों पर मेरी तरह रिसर्च करके विदेशी कम्पनियों को बेच दीजिए। फिर देखते हैं कि रुपए के मुकाबले डालर कितनी देर टिकता है?
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


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Tuesday, October 27, 2015

विद्यालय में वृक्षारोपण

मानसून तो आया नहीं पर जुलाई का महीना शुरू होते ही सरकारी विद्यालयों में यह आदेश जरूर आ गया कि पेड़ लगाओ। अपने-अपने विद्यालयों में पर्यावरण पखवाड़ा मनाओ। वृक्षारोपण चूंकि हमारा राष्ट्रीय कार्यक्रम है अत: इसे हर कीमत पर सफल बनाना है। इस कार्य में कोताही बरतने वालों के खिलाफ सख्त कार्यवाही की जायेगी, इत्यादि। आदेश मिलते ही ऐसा लगा कि जैसे अचानक शनिचर जी ने अवतार ले लिया हो और वे आदेश का रूप धारण करके पधारे हो।
विद्यालय में 'रेड अलर्ट' हो गया। आनन-फानन में 'स्टाफ मीटिंग' बुलवाई गई। परम्परानुसार सभी अध्यापकों ने सर्वप्रथम मूल आदेश का सावधानी पूर्वक वाचन किया और उसके निचले कोने पर उसी तिथि में अपने संक्षिप्त हस्ताक्षर अंकित कर दिए। जब सारा काम निर्विघ्न रूप से संपन्न हो गया तो चुकी हुई क्षमताओं के धनी प्रधानाध्यापक जी ने स्वयं को किसी 'दिव्य सुरक्षा चक्र' के भीतर पाया।
अब शुरू हुआ आदेश पर सार्थक और गहन विचार विमर्श। एक प्रतिभाशाली अध्यापक ने प्रधानाध्यापक की ओर मुखातिब होकर कहा-''अब तो आपको भी पता चल गया होगा कि पेड़ लगाना हमारा राष्ट्रीय कार्यक्रम है,पढ़ाना नहीं।"
दूसरा अध्यापक बात को आगे बढ़ाते हुए बोला, ''इस आदेश में इस कार्य के निमित्त अतिरिक्त समय देने का निर्देश तो है नहीं, लिहाजा इस पर्यावरण पखवाड़े का सारा काम शाला समय के दौरान ही करना है। ऐसे में पढ़ाई-लिखाई के लिए समय तो बचेगा ही नहीं। इसलिए आदेश पंजिका में  सर्वप्रथम यह आदेश निकाल देना चाहिए कि पर्यावरण पखवाड़े के दौरान समस्त शिक्षण कार्य स्थगित रहेगा।"
तीसरा अध्यापक बोला-''मेरी मानो सबसे पहले अपनी-अपनी 'टीचर्स डायरी' में पूरे पखवाड़े के सभी कालांशों को काटकर सिर्फ एक लाइन लिख दो कि पर्यावरण पखवाड़े से संबंधित सभी कार्यक्रम संपन्न करवाए गए।"
तीनों राष्ट्र निर्माताओं के पावन वचनों को सुनकर प्रधान राष्ट्र-निर्माता की हालत साँप-छछूंदर हो गई। वह बेचारा शान्ति से  'रिटायरमेन्ट' की बाट जोह रहा था कि समानीकरण के तूफान ने अचानक उसे उठाकर प्रधानाध्यापक की कुर्सी पर ला पटका था। नया-नया पद,नया-नया मद, और नया-नया टेंशन; इस बात का कि कहीं खतरे में नहीं पड़ जाये उसकी चिर प्रतिक्षित पेंशन। प्रधानाध्यापक को निरीह मुद्रा में देख पर्यावरण प्रभारी उन्हीं से मुखातिब होकर बोला-''सर! पेड़ तो लगवा देंगे पर इसके लिए पौधे कहाँ से आयेंगे?" इससे पहले कि प्रधानाध्यापक उसके प्रश्न का उत्तर देते, चर्चा को सकारात्मक होते देख शाला प्रभारी ने चर्चा में दखल करतेे हुए पर्यावरण प्रभारी से पूछ लिया- ''आपको पौधे लगवाने के लिए किसने कहा? आदेश तो ठीक से पढिय़े पहले। साफ लिखा है कि पेड़ लगाओ। फिर आप पौधे क्यों लगवाना चाहते हैं? पेड़ और पौधे मेें फर्क समझते हैं आप?" शाला प्रभारी ने पर्यावरण प्रभारी के सवाल के चिथड़े उड़ा दिए।
पर्यावरण प्रभारी ने जवाब दिया, ''पेड़ लगाओ या पौधे लगाओ, एक ही बात है।" जवाब सुनते ही पर्यावरण प्रभारी ने फुफकारते हुए प्रति प्रश्न किया- ''एक ही बात कैसे है? आपको ब्यावर से 'रिलीव" तो विजयनगर के लिए किया है, ऐसे में आप गुलाबपुरा जाकर 'ज्वाइन' कर लेंगे क्या? फिर पूछने पर क्या यह तर्क देंगे कि दोनों में मामूली फर्क है इसलिए इसे एक ही बात समझी जाए।
अपने पर्यावरण प्रभारी को मात खाते देख प्रधानाध्यापक ने मोर्चा संभालते हुए शाला प्रभारी से कहा- ''भाषा पर मत जाओ, भावना को समझने की कोशिश करो।"
प्रधानाध्यापक की सलाह शाला प्रभारी को ऐसी लगी कि जैसे उसे किसी बिच्छु ने डंक मार दिया हो। वह लगभग चीखते हुए बोला, ''अपनी भावनाओं को अपने पास रखो हैड मास्टर साब, यहाँ सबकी नौकरी का सवाल है। जैसा आदेश है, वैसा करो। आदेश कहता है कि पेड़ लगाने है पेड़ लगाओ, पौधे लगाने है तो पौधे लगाओ, बीज लगाने है तो बीज लगाओ पर अपना सड़ा हुआ दिमाग मत लगाओ।" शाला प्रभारी की वाणी में, सिर्फ दो दिन की वरिष्ठता कम होने के कारण प्रधानाध्यापक न बन पाने की वेदना क्रोध बनकर फूट पड़ी थी।
जब प्रधानाध्यापक ने यह दलील दी कि- ''अपना विवेक भी तो काम में लो" तब एक मसखरे अध्यापक ने तुरन्त यह टिप्पणी जड़ दी कि ''आपका तो विवेक लगभग खत्म हो चुका है सर, इसीलिए तो सरकार सिर्फ दो माह के बाद आपको 'रिटायर' करने वाली है।"
शाला प्रभारी ने चर्चा में हावी होते हुए तर्क दिया कि ''सीधी सी बात आपकी समझ में नहीं आ रही है। विभाग ने अगर आपको 'टेबल' खरीदने का बजट दिया है तो आप टेबल की जगह 'स्टूल' खरीद सकते हैं क्या? 'फिजीकल वेरीफिकेशन' में आप 'स्टूल' को 'टेबल' साबित कर सकते हैं क्या? जब ऐसा होना संभव नहीं है तब पेड़ की जगह पौधे कैसे लगाए जा सकते हैं?" शाला प्रभारी का तर्क सुनकर प्रधानाध्यापक और पर्यावरण प्रभारी दोनों एक दूसरे का मुँह ताकने लगे। दोनों की खामोशी का लाभ उठाते हुए वही मसखरा अध्यापक बोला, ''इसमें लिखा है सर कि पेड़ लगाओ, लगा देंगे। पर इतने बड़े पेड़ को आप खुद हिलाकर तो दिखाओ। जिस पेड़ का आप खुद तो हिला तक नहीं पाएँ, और आप हमसे उम्मीद कर रहे हैं कि हम उसे उखाड़े और विद्यालय परिसर में लाकर लगाएँ। यह कैसे हो सकता है?"
खैर, हुआ यों कि बिना किसी निष्कर्ष पर पहुंँचे 'स्टाफ मीटिंग' के प्राण पखेरू उड़ गए। पर्यावरण पखवाड़े के दौरान क्या-क्या गतिविधियाँ हुई किसी को कुछ पता नहीं पर शिक्षण कार्य अवश्य स्थगित रहा। अनुपालना की दैनिक सूचना प्रतिदिन मुस्तैदी से तैयार करके भेजी जाती रही। आखिरी दिन प्रभात फेरी निकाली गई जो पूरी तरह पर्यावरण को समर्पित थी। एक पेड़ को काटकर ठेले पर लादा गया। प्रभात-फेरी में बीचों-बीच उसे सजाकर पूरे गांव में यह संदेश देने के लिए घुमाया गया कि इस तरह के पेड़ लगाने हैं। प्रत्येक छात्र के दोनों हाथों में उस पेड़ की एक-एक टहनी थी। किसी को पता नहीं कि पर्यावरण पखवाड़े के दौरान क्या  काम हुआ? पर यह सभी ने देखा कि एक निर्दोष पेड़ का काम तमाम हुआ।
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


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Saturday, October 24, 2015

हँसते-हँसाते पानी बचाओ

पानी बचाने की जागरूकता के लिए चलाए गए अभियान अब खुद पानी माँगने लगे हैं। इस मुद्दे पर पहले भी कई पानीदार सरकारों का पानी उतर चुका है। कितने ही एन.जी.ओ. पानी-पानी होकर रह गए। लेकिन ये जागरूकता है कि लोगों के बीच आने को तैयार ही नहीं है।
इस चुनौती भरे काम को करने के लिए मैंने रिसर्च की। मेरी रिसर्च ये है कि हम अपनी लाइफ स्टाइल में रोचक बदलाव लाकर हँसने-हँसाने का आनन्द भी उठा सकते हैंं और पानी भी बचा सकते हैं। इसके लिए मैंने कई 'स्किल्स' इजाद की है। हमें उन 'स्किल्स' को अपनाना होगा। हँसते-हँसाते पानी बचाना होगा। वरना वैज्ञानिक तो पहले से ही चेतावनी दे चुके है कि तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिए होगा। वह भी तब जबकि धरती के दो तिहाई भाग पर पानी ही पानी है। मेरी इस अतिमहत्वपूर्ण रिसर्च की समरी इस प्र्रकार है।
टेक्नीक नम्बर वन-पानी बचाने का सर्वाधिक आसान और रोचक तरीका यह है कि सब लोग अपने-अपने बाल कटवाकर गंजे हो जाओ। बालों मेंं साबुन रह जाता है। ऐसे में नहाते समय बाल धोने में पानी ज्यादा बर्बाद होता है। औरतों के बाल तो और भी ज्यादा लम्बे होते हैं। इसलिए दुनिया को तीसरे विश्व युद्ध से बचाने के लिए उन्हें भी गंजा हो ही जाना चाहिए। फिर हमेें एक दूसरे को देखने में कितना मजा आएगा। चारों ओर टकले ही टकले दिखाई देंगे। टकलियों को अलग से पहचानना मुश्किल होगा इससे जेेन्डर से जुड़ा भेदभाव भी समाप्त होगा। इसे कहते हैं एक पंथ दो काज।
मेरी यह रिसर्च पता नहीं कैसे लीक होकर एन.जी.ओ. के एक एक्टीविस्ट तक पहुँच गई। उसने इसे तुरंत लपक लिया। सबसे पहले तो उसने खुद के सिर के बाल कटवाए। और अब जेब में उस्तरा लिए डोल रहा है ताकि लोगों को गंजा करके पानी बचाने की प्रेरणा दे सके। सुना है कि  उसने कई स्वयं सेवी हेयरड्रेसर्स का संगठन बनाकर पानी बचाने का एक प्रोजेक्ट भी समिट कर दिया है। आशा है कि सरकार उस प्रोजेक्ट को जल्दी ही हरी झण्डी दे देगी। चुनावी वर्ष में सारे काम फटाफट होने हैं।
टेक्नीक नम्बर टू-जब हम फुल स्लीव की शर्ट पहनते हैं तो उसे धोते समय कोहनी से कलाई तक की आस्तीन को धोने में पानी की फिजूल खर्ची होती है। इसे रोकने के लिए हमें हाफ स्लीव की शर्ट पहननी चाहिए। हम जेन्डर का भेद भाव किए बिना सोचें। चाहे तो स्लीव लेस शर्ट पहनें। चाहे तो विश्व हित में शर्ट न भी पहने। केवल बनियान से काम चलाए पानी तो बचेगा ही । सोचिए कितना आनन्ददायक दृश्य उपस्थित होगा। जिसकी कल्पना मात्र से ही आनन्द आ रहा है उसे साकार होते देखने में सचमुच सबको कितनी हँसी आएगी। हम एक-दूसरे को देखकर हँसेंगे और सब हमें देखकर। आपको कम कपड़े में जो लड़के-लड़की नजर आ रहे हैं वे फैशन के कारण ऐसा नहीं कर रहे हैं। दरअसल वे पानी बचाने के लिए मेरी रिसर्च अपना रहे हैं।
टेक्नीक नम्बर थ्री- हमारी रोज नहाने की आदत ठीक नहीं है। इससे पानी बर्बाद होता है। पानी बचाने के लिए स्नान सिर्फ साप्ताहिक हो। चाहें तो पति-पत्नी एक साथ नहाएँ। इससे पानी भी बचेगा तथा उनके पारस्परिक संबंध भी सुधरेंगे।
इस क्रान्तिकारी रिसर्च को सुनते ही मेरे एक दोस्त के भीतर भी एक आइडिया कुलबुलाने लगा। उसने कहा कि हम टायलेट में फ्लश का बटन दबाते हैं तो फ्लश के डिब्बे में भरा तीन-चार लीटर एक साथ बह जाता है। अगर हम उस डिब्बे में मिनरल वाटर की एक बोतल डाल देें तो एक लीटर पानी कम भरेगा। डिब्बे में एक लीटर पानी कम भरा तो बटन दबाने पर एक लीटर पानी कम बहेगा। मान लो दिन भर में हम दस बार फ्लश का बटन दबाते हैं तो बचा कि नहीं दस लीटर पानी?
दोस्त ने बेहतरीन आइडिया दिया लेकिन वह आइडिया था, इसलिए मैंने नहीं लिया। यहाँ आइडिए की क्या वेल्यू? वेलेबल तो रिसर्च होती है। आइडिया तो ऐसे होता है जैसे कि सड़क पर घूमता हुआ नंगा आदमी। रिसर्च उस रईस की तरह होती है जो जून की दोपहर में भी सूट पहनकर निकलता है। तभी से मैं अपने हर आइडिए को रिसर्च कहता हूँ।
खैर, मैंने उस आइडियाबाज को यह कहकर चुप कर दिया कि पहले पानी तो हो जिसे बचाया जाए। समस्या ये है कि जब पानी ही नहीं है तो हम किसे बचाएं। अपना आइडिया अपने पास रखो। अपनी रिसर्च जीवित रहे इसलिए मैंने उसके आइडिए की हत्या कर दी। यहाँ आदमी के मरने पर भी कोई नहीं रोता तो किसी आइडिए के मरने पर कौन आँसू बहाए? हम पानी बचाने की बात उन लोगों को कहते हैं जिनके पास अपनी जरूरत से कम पानी है। जिनके पास जरूरत से ज्यादा पानी है उन्हें अगर पानी बचाने की बात बताते तो जागरूकता का ये मिशन कभी का कामयाब हो जाता।
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


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Thursday, October 22, 2015

मैरीज का मास्टर प्लान

आदमी अपने पुरुषार्थ के बूते पर प्रधानमंत्री तो बन सकता है लेकिन इससे उसकी शादी भी हो जाए, यह जरूरी नहीं है। जिन्दगी के इस डिपार्टमेंट में पुरुषार्थ का रोल कम और प्रारब्ध का ज्यादा होता है।
नौकरी नहीं मिलने की वजह से मेरी शादी का प्रोजेक्ट पूरी तरह से खटाई में पड़ चुका था। मैं मन ही मन बहुत परेशान था। मुझसे भी ज्यादा परेशान थे मेरे मोहल्ले वाले। रिश्तेदार आशंकित और पड़ौसी आतंकित। कुल मिलाकर मेरा कुँवारापन एक विकराल समस्या बनकर उभर रहा था।
मैं मार्केटिंग का विशेषज्ञ था इसलिए मुझे अपने पुरुषार्थ पर कुछ ज्यादा ही भरोसा था। कैसी भी परिस्थिति में मैं हिम्मत हारने वाला नहीं था। अत: मैंने समाज के सभी वर्गोंं के व्यापक हितों को ध्यान में रखते हुए अपनी मैरीज का मास्टर प्लान बनाया।
सबसे पहले मैंने अखबार में विज्ञापन छपवाने की सोची। लेकिन यह फैसला मैंने पहले ही ले लिया था कि अखबार में विज्ञापन तो देंगे क्लासीफाइड में नहीं देंगे क्योंकि विवाह योग्य युवतियों के बुढ़ाते हुए पेरेन्ट्स क्लासीफाइड के बारीक अक्षरों को ठीक से नहीं पढ़ सके तो सारा गुड़ गोबर हो जाएगा। इसलिए फोटो सहित अलग से विज्ञापन छपना चाहिए ताकि सबकी नजर पड़े। विज्ञापन का मैटर भी मैंने पूरा दिमाग लगाकर बनाया। लिखा कि ''विवाह की इच्छुक युवतियाँ नि:संकोच अपना बायोडेटा भेजे बिल्कुल नहीं डरे। विवाह योग्य वर-कवि सुरेन्द्र दुबे। पहले इस्तेमाल करें, फिर विश्वास करें।''
अखबार के दफ्तार में अपना यह विज्ञापन सौंपते हुए मैंने टेबल पर पड़े अखबार को बड़ी हसरत से निहारा। बकायदा उसे अपने सिर से लगाकर कहा-''एक तेरा सहारा।'' अब मैं पूरी तरह निश्चित था। मैंने सोचा कि विवाह योग्य लड़कियों के पेरेन्ट्स को नींद तो आती नहीं। कल सुबह पाँच बजे अखबार में विज्ञापन देखते ही सात बजे तक तो मेरे घर आ जाएँगे। कल से अपना भाग्य बदलने वाला है यह सोचकर मैं सो गया। लेकिन मेरी तकदीर ही खराब थी। इस बार संपादक ने गलती कर दी। वैवाहिक विज्ञापनों के पन्ने पर छापने की बजाय उसने गलती से मेरा विज्ञापन शोक समाचार वाले पेज पर छाप दिया।
शोक समाचार वाले पेज छपने वाले विज्ञापनों को कोई भी ध्यान से नहीं पढ़ता। सिर्फ फोटो देखते ही समझ जाता है कि इसका विकेट उड़ चुका है। लिहाजा लड़कियों के पेरेन्टस तो आए लेकिन सुबह-सुबह मेरे घर के बाहर शवयात्रा में शामिल होने वाले लोगों का जमघट लग गया।
लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी। मैंने तुरंत एक मैरीज ब्यूरो खोल लिया। अपने आफिस पर बड़ा सा बोर्ड टाँगकर उस पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखवाया-''दुल्हन वही जो दुबेजी दिलाए।'' चार दिन बाद बगल में दूसरा आफिस खुल गया जिसके बोर्ड पर लिखा था-''तलाक वही जो चौबे जी कराए।''
चौबे ने सोचा कि दुबे जो खुद शादी नहीं कर सका, जरुर दूसरों के ऊटपटांग रिश्ते करवाएगा। ऐसे में इसका हर कस्टमर छ: महीने बाद रोता हुआ मेरे पास आएगा। उसे सफलता के लिए अपनी योग्यता की तुलना में मेरी अयोग्यता पर ज्यादा भरोसा था। दोनों की कोशिशें अलग-अलग तरह की थी। मैं बंधन बेच रहा था और वह मुक्ति। सामाजिक सरोकारों से शून्य लोगों की मजबूरी है कि कभी मेरे पास आए और कभी उसके पास जाए। लेकिन हम दोनों के मनों में पता नहीं कौनसा डर है कि दोनों की नजर में एक-दूसरे का कस्टमर है।
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


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Wednesday, October 21, 2015

अवेयरनेस में अफेयरनेस

एड्स के प्रति अवेयरनेस के लिए कार्यक्रम प्रस्तुत करते हुए हॉलीवुड स्टार रिचर्ड गेर और बॉलीवुड की स्टारनी शिल्पा शेट्टी दिलवालोंं की दिल्ली में अचानक दिल्लगी करने लगे। आए तो वे अवेयरनेस के निमित्त थे लेकिन शो के दौरान आपस में अफेयरनेस कर बैठे।
'सीना तान के उत्सव' नामक इस कार्यक्रम में ज्यों ही शिल्पा ने सीना ताना, बिना देर किए रिचर्ड गेर ने ऐसा हेर-फेर किया कि बेचारी शिल्पा ढेर होते-होते बची। उसने सरे आम 'मिस' को 'किस' किया और दर्शकों ने किस को मिस किया। खलबली मचनी थी,मची। वे सोचने लगे कि अपनों के रहते ये गैर कहाँ से आ टपका। टपका सो तो टपका वह बिग ब्रदर की स्वीट सिस्टर पर सरे आम इस तरह क्यों लपका? लिहाजा उन्हें संस्कृति की रक्षा के लिए सड़कों पर आना पड़ा। बहुत दिनों से सुस्त पड़े संस्कृति सेवियों को काम मिल गया। क्रिया दिल्ली में हुई और प्रतिक्रिया मुम्बई समेत अनेक शहरों में। संस्कृति सेवियों ने दोनों के पुतले फूँक कर 'कार्यक्रम' का 'क्रियाकर्म' कर दिया।
रिचर्ड पर चर्ड-चर्ड करता हुआ संस्कृति सेवी मेरे पास आया। मैंनें उससे उसकी इस ताजा भन्नाहट का कारण पूछा तो उसने बताया कि भारतीय संस्कृति का अपमान उसे बहुत बुरा लग रहा है। मैंने पूछा ''जब खुद शिल्पा को ही बुरा नहीं लग रहा है तो तुम क्यों फिजूल में परेशान हो?'' बोला-''उसे क्यों बुरा लगेगा? वह कोई भारतीय नारी की प्रतीक थोड़े ही है।'' मैंने कहा-''जब शिल्पा भारतीय नारी की प्रतीक है ही नहीं तब उसकी किसी भी ऊल-जलूल हरकत से भारतीय संस्कृति का अपमान कैसे हो सकता है?''
उसने समझाया-''भारतीय संस्कृति पर इसका बुरा प्रभाव पडऩा तय है। हमारे टीवी चैनल्स को जब कभी कोई 'हॉट सीन'  मिल जाता है तब उन्हें ऐसा लगता है कि जैसे बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा हो। वे उस सीन को लगातार दिखाते ही रहते हैें। इधर हमारे नासमझ बच्चे दिन-रात टीवी से चिपके रहते हैं। अब आप ही बताओ उसे देखकर बच्चे बिगडेंगे कि नहीं? बच्चे बिगड़ गए तो संस्कृति कैसे बचेगी?''
मैंने उसके प्रश्न के उत्तर में प्रश्न ठोक दिया और पूछा-''बच्चों के बिगडऩे-सुधरने की स्टेज तो बाद में आएगी। आप पहले यह क्यों नहीं सोचते कि एड्स के प्रति जागरुक न होने पर हमारे बच्चे बचेंगे कि नहीं?'' वह बोला-''जो भी हो मुझे तो बहुत बुरा लग रहा है।'' मैंने कहा-''दोस्त! अच्छा तो मुझे भी नहीं लग रहा है। लेकिन जिस जागरुकता का विषय ही सैक्स हो उसमें 'किस' से कम क्या किया जा सकता है? भारतीय संस्कृति के दायरे में रहते हुए एड्स के प्रति जागरुकता पैदा करने का क्या तरीका हो सकता है?''
मेरे सवाल का जवाब शायद उसके पास नहीं था, इसलिए वह मुझे बुरा-भला कहता हुआ किसी दूसरे शिकार की तलाश में चल दिया।
 -सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


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Tuesday, October 20, 2015

क्षण भंगुर देह, अति क्षणभंगुर

सचमुच कितनी भोली-भाली और सीधी-सादी लड़की है-उस नई फिल्म की नई नवेली नायिका। बेचारी कुछ भी तो नहीं छिपाती। इतनी सीधी-सच्ची और अच्छी लड़की के बारे में लोग पता नहीं क्यों कैसी-कैसी बातें करते रहते हैं? देह प्रदर्शन को लेकर, सपने में राखी से खुलकर बातें हुई। प्रस्तुत है उस बातचीत के प्रमुख अंश-
प्रश्न- आप पर आरोप है कि आप अंग प्रदर्शन के सहारे शोहरत की सीढिय़ाँ चढ़ रही है?
उत्तर- अंग तो शरीर के हिस्से हैं और शरीर नश्वर है। अब इसेे क्या तो छिपाना और क्या दिखाना? मैं ऐसी बातों पर ध्यान नहीं देती। मेरी नजर में शरीर का कोई महत्व नहीं है। महत्व सिर्फ आत्मा का है। आप भी इस तरह से क्यों नहीं सोचते?
प्रश्न- लेकिन इतने कम कपड़े पहनना तो अश्लीलता के दायरे में आता है। आप अपने ड्रेस सेंस के बारे में क्या कहेंगी?
उत्तर- बड़े-बड़े अनेक महापुरूष ऐेसे हुए हैं जिन्होंने कपड़ों को बिल्कुल महत्व नहीं दिया। मैं भी बड़ा बनना चाहती हूँ तो क्या गलत करती हूँ।
प्रश्न- लेकिन शर्मीली लड़कियों की तरह आप शालीन ड्रेस क्यों नहीं पहनती?
उत्तर- आप समझे नहीं। आपका दिमाग अभी भी शरीर पर अटका हुआ है। जन्म से पहले और मृत्यु के बाद इस बेचारे शरीर का अस्तित्व ही नहीं रहता। ये बेचारा, कुछ समय के लिए है। फिर इस पर ज्यादा कपड़े क्यों लादे? जब शरीर साथ नहीं जाएगा तो उस पर लादे गए कपड़े भी तो यहीं पर रह जाएँगे कि नहीं? क्षण भंगुर देह के अति-क्षण भंगुर परिधान को इतना महत्व देकर आप तो परेशान हैं ही, मुझे क्यों परेशानी में डालना चाह रहे हैं?
प्रश्न- लेकिन लोगों को इस पर बहुत ऐतराज है।
उत्तर- मुझे तो लोगों के अधिक कपड़े पहनने पर बिल्कुल ऐतराज नहीं है। जिन्हेंं मेरे कम कपड़ों पर ऐतराज है वे पहन लें मेरे हिस्से के अधिक कपड़े। अगर मैं ज्यादा कपड़े पहनने लगी तो मेरे प्रशंसकों के प्रति मेरी ओर से भावनात्मक हिंसा होगी जिसे मैं कभी भी स्वीकार नहीं कर सकती।
प्रश्न- आप अपने प्रशंसकों के बारे में क्या कहेंगी?
उत्तर- बड़े बहादुर लोग हैं वे। लाखों की भीड़ में जान हथेली पर रखकर आते हैं। लाठीचार्ज भी हो सकता है। गोली भी चल सकती हैं लेकिन वे इसकी परवाह न करते हुए मेरा डांस देखने आते हैं। मुझे उनकी भावनाओं का ध्यान रखना चाहिए सो मैं रखती हूँ। मैं ऐसा नहीं करूँगी तो वे भी हिंसक हो सकते हैं। जिसे आप बार-बार देह प्रदर्शन कह रहे हैं वह तो मेरी अहिंसा के प्रति आस्था है जिसका उद्देश्य ही परोपकार है।
प्रश्न- एक तरफ तो आप अहिंसा की बात करती हैं और दूसरी तरफ आपके शो में लाठीचार्ज होता है। बेचारे दर्शक लहुलुहान हो जाते हैं। इस पर आपका क्या कहना है?
उत्तर- जो हुआ अच्छा हुआ। जो हो रहा है अच्छा ही है। आगे जो होगा वह भी अच्छा ही होगा। सबका अपना-अपना प्रारब्ध है। मैं इसमें क्या कर सकती हूँ? लाठियाँ खाकर मेरे प्रशंसकों को उतनी तकलीफ नहीं होगी जितनी तकलीफ मुझे ज्यादा कपड़ों में देखकर होगी।
प्रश्न- सुना है कि विद्वानों की संगति में रहकर आपका आध्यात्म की तरफ रुझान बढ़ रहा है?
उत्तर- हाँ, मैं विद्वानों की बातों को आचरण में ढालने की कोशिश करती हूँ। इसीलिए तो व्यवहार, ज्ञान, आचरण देह सभी को आवरण से मुक्त रखने की कोशिश करती हूँ।
प्रश्न- लेकिन आपके तर्क मेरे गले क्यों नहीं उतर पा रहे हैं?
उत्तर- गले में उतारने हैं तो गले को साफ करो उतर जाएँगे। लेकिन दिमाग में समझने हों तो किसी कवि की ये पंक्तियाँ सुन लो। सारी बात समझ में आ जाएगी।
यह न प्रकाशित हो पाएगी, खबर किसी अखबार में।
सारी नर्तकी नाची, अंधों के दरबार में।।

 -सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


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Monday, October 19, 2015

सस्ती हवाई यात्रा की मस्ती

प्राइवेट एयर लाइन्स ने किराया कम करके हवाई यात्राओं का चरित्र ही बदल दिया है। अब जरूरत नहीं है कि आपके बोर्डिंग कार्ड पर आपको सीट नं. अलॉट किए जाएँ। कई एयर लाइन्स ऐसी भी हैं जो 'पहले आओ-पहले पाओ' की नीति अपना रही हैं। ऐसे में बेचारे पेसेंजर को भागकर विमान में घुसना पड़ता है। पिछले दिनों मुझे भी ऐसा ही करना पड़ा। मैं बैठने के लिए एक खाली सीट की तरफ लपका तो मैंने देखा कि उस सीट पर एक रुमाल बिछा हुआ है। पड़ौस की सीट पर बैठे पेसेंजर ने मुझे बताया कि यह सीट उसने अपने साथी के लिए रोक रखी है। मैं समझ गया कि बस यात्रा की महान परम्पराएँ हवाई यात्रा में आ पहुँची हैं।
खैर, मुझे भी एक सीट मिलनी थी सो मिल गई। हवाई यात्रा के चरित्र में हुए इस बदलाव पर सोचते-सोचते मेरी आँख लग गई। नींद में सपने में मुझे अजीब दृश्य दिखाई दिए। अब मैं अनुमान लगा चुका था कि इस बदलाव का भविष्य क्या है? धीरे-धीरे जब बसों और रेलों में यात्रा करने के अभ्यस्त लोग कम किराए की वजह से हवा में उडऩे लगेंगे तो हवाई यात्रा की संस्कृति कितनी बदल जाएगी? जो दृश्य सपने में मैंने देखे वे आपको दिखा रहा हूँ।
दृश्य-1
टेक ऑफ करने के लिए रनवे पर रेंगते हुए हवाई जहाज को एक पेसेंजर ने हाथ का इशारा करके रोक लिया है। वह हाँफता हुआ विमान में चढ़ कर पायलट से कह रहा कि पाँच मिनट रोकना तीन पेसेंजर और आ रहे हैं। विमान का कप्तान नकद पैसे लेकर उसका टिकट बना रहा है। खुले पैसे न होने के कारण उसने टिकट के कोने पर गोला बनाकर बकाया राशि लिख दी है। उसने पेसेंजर से कह दिया है अभी खुले पैसे नहीं है। उतरो तब याद करके ले लेना। वह बेचारा इस टेंशन में सफर कर रहा है कि उतरते वक्त कहीं मैं बकाया रकम लेना न भूल जाऊँ?
दृश्य-2
बस और ट्रेन की तरह विमान में तीन-चार लोग चढ़ आए हैं उनमें से कोई अकबर-बीरबल के किस्सों की किताब बेच रहा है तो कोई मुसम्मी का ज्यूस निकालने की मशीन। कोई पेन बेच रहा है तेा कोई मल्टीपरपज दंतमंजन। दंतमंजन बेचने वाला दाँत में से हाथों हाथ कीड़े निकालने का दावा कर रहा है। एक पेसेंजर उसके झाँसे में आ गया है। उसने एक दाँत से कीड़ा निकालने की बजाय दाँत ही निकाल दिया है। सचमुच स्काई शॉपिंग का फ्यूचर बड़ा ब्राइट है।
दृश्य-3
पेसेंजर बैठे-बैठे टाइम पास करने के लिए मूंगफली खा-खा कर छिलके गिरा रहे हैं। रेलों की तरह एक लड़का सफाई करने आया है उसे देखकर एक महिला दूसरी महिला से कह रही है कि चप्पल सँभाल कर रख। पिछली बार जब मैं कोलकाता जा रही थी तो मुझे ध्यान ही नहीं रहा और चप्पल गायब हो गई। सफाई करने वाले ने छिलके बुहारने के बाद पेसेंजर्स के सामने पैसे के लिए अपना हाथ फैला दिया है। कोई उससे कह रहा है कि आगे चल, हमने थोड़े ही बुलाया है तुझे?
दृश्य-4
हवाई यात्रा के लिए जाते हुए बेटे को माँ समझा रही है कि उड़ते हवाई जहाज की खिड़की में से हाथ बाहर मत निकालना। अपनी जेब का ध्यान रखना मैंने सुना है कि आजकल हवाई जहाज में जेबकतरे ज्यादा सफर करते हैं। कुछ जेबकतरे तो इतने उस्ताद है कि वे बैंकों और सरकार तक की जेब काट लेते हैं।
दृश्य-5
सफर के दौरान अचानक एक ढफली वाला आ गया है जो पुराने गाने, भजन और कव्वाली सुना रहा है। जो पेसेंजर उसे आगे जाने की कहता है वह उसी के सामने ढफली को उलटकर पैसे की माँग करता है। पेसेंजर भन्ना जाता है लेकिन फिर कुछ छोटे नोट डालकर अपना पिण्ड छुड़ाता है।
तभी मेरी आँख खुल गई। भूख लगी थी तो नाश्ता खरीदना पड़ा। प्राइवेट एयरलाइन्स में नाश्ता खरीदने में मुझे तकलीफ हुई। क्योंकि हवाई यात्रा के दौरान मुफ्त का नाश्ता करने की आदत जो पड़ चुकी थी।
आदमी चाहे जितनी भी तरक्की कर ले मुफ्तखोरी की आदत उससे नहीं छूटती।
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


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Saturday, October 17, 2015

क्राइम शो की एंकरिंग

एक दिन किसी दोस्त ने मुझ पर यह सलाहात्मक प्रश्न दाग दिया कि तुम किसी न्यूज चैनल पर क्राइम शो की एकरिंग क्यों नहीं करते? मैंने जवाब दिया कि दोस्त टीवी के प्रोग्राम्स में तो चॉकलेटी चेहरे वाले लड़के-लड़कियाँ एंकरिंग करते हैं। दरअसल मेंरी शक्ल एंकरिंग के लायक नहीं है। मेरा जवाब सुनते ही वह मेरी अवधारणा का खंडन करते हुए बोला-''क्राइम शो की एंकरिंग के लिए तो वे छाँट-छाँट कर बदसूरत वाले चेहरे लाते हैं। तुम तो उसके लिए बिल्कुल फिट हो।'' मैं समझ गया कि जिसके ऐसे दोस्त हों उसे दुश्मनों की क्या जरुरत?
खैर, क्राइम शो का एंकर अपनी कर्कश आवाज और भयानक मुख मुद्रा से डरा-डरा कर आपको अपना प्रोग्राम देखने के लिए मजबूर कर देता है। वह बताता है कि क्यों दिया अमुक औरत ने अपने ही पति को जहर? किसलिए किया उसने अपने सगे भाई का कत्ल? किस डकैती के पीछे निकला घर में काम करने वाली नौकरानी का हाथ? आपका समूचा आत्म विश्वास हिला देने के बाद वह बताता है कि ये सब आप के साथ भी हो सकता है।
किसी भी प्रकार टीवी के प्रोग्राम्स में अपना चेहरा दिखाने की लालसा ने क्राइम शो की एंकरिग के लिए मुझसे जो स्क्रिप्ट लिखवाई जो इस प्रकार है-
चैन से सोना है तो अब जाग जाओ। बीवी को देखो गुस्से में तो बिस्तर छोड़कर भाग जाओ। खबरें तो सिर्फ बहाना है। हमें तो आपको डरा-डरा कर बहादुर बनाना है।
थानेदार के हाथ से होने वाली पिटाई और बीवी के हाथों से होने वाली धुनाई में सिर्फ एक ही फर्क आता है कि थानेदार को तो फिर भी रहम आ जाता है, बीवी को रहम नहीं आता है। बीवी को अपने शोहर पर रहम की जगह सिर्फ वहम आता है। पेश है इस बारे में अहमदाबाद से हमारे क्राइम रिपोर्टर कुमार झँूठा की ये सच्ची रिपोर्ट।
टीवी की स्क्रीन पर हाथ में माइक थामे कुमार झूठा यूं प्रकट होते हैं जैसे कि सत्यवादी हरीश चंंद्र के कलयुगी अवतार सिर्फ वे ही हों। वे सिलसिलेवार बताना शुरू करते हैं-
तीस फरवरी का मनहूस दिन था। (यह बात वही जाने कि यह तिथि किस कलेंडर की शोभा बढाती है) और उसी दिन खेला गया यह खूनी खेल, जिसे देखकर आपके रोंगटें खड़े हो जाएँगे (अगर वे पहले से ही खड़े न हों)।
(अब कुमार अपनी बात को आगे बढाता है-) ये हैं अहमदाबाद के भोला भाई। इनकी पत्नी खूँखार बेन ने ऐसी की इनकी धुनाई कि नाक से खून बह रहा है। चेहरे का हर जख्म कह रहा है कि हमले में बेलनाकार हथियार का जमकर इस्तेमाल हुआ था।
इस बारे में भोला-भाई मूर्छित होने की वजह से कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं थे लिहाजा हमने खँूखार बेन से बात की
प्रश्न-क्या आप अपने पति को रोजाना पीटती हैं?
उत्तर-रोजाना टाइम किसे मिलता हैं?
प्रश्न-तो आप अपने पति को कब पीटती हैं?
उत्तर-एक दिन छोड़कर सब दिन पीटती हूँ।
प्रश्न-एक दिन छोड़कर एक दिन किसलिए?
उत्तर-इसलिए कि मारने के बाद पुचकारना भी तो पड़ता है।
प्रश्न-मारती हैं तब पुचकारती क्यों हैं?
उत्तर-पुचकारूँगी नहीं तो ये घर छोड़कर भाग नहीं जाएगा। फिर पिटने के लिए खुद पडौसन का आदमी थोड़े ही आएगा। इस काम के लिए तो खुद का पति ही ठीक रहता है जो अपने आप नियम से आए और पिट ले।
आइये देखते हैं कि इस बारे में प्रसिद्ध मनो चिकित्सक डा. भेजा चाटिया के विचार। डॉ. भेजा चाटिया प्रकट होकर बताते हैं-
आजकल शादी दो आत्माओं का पवित्र मिलन नहीं बल्कि दो आत्माओं की भयानक भिडंत का नाम है। किसी भी बीवी को अपने पति को पीटने शौक नहीं होता (एडिक्शन)आदत होती है। दरसल ये तेजी से फैलता हुआ नया रोग है ''प्मोर्स'' (pmors) जिसका फुल फार्म है-पोस्ट मेरीज ओल्ड रिवेंज सिन्ड्रोम। अभी तक इसका उपचार नहीं खोजा जा सका हैं इसलिए कुछ बातों का ध्यान रखकर सिर्फ अपना बचाव ही किया जा सकता है। जैसे अगर आप टू व्हीलर चलाते हैं हैलमेट पहनकर ही घर में घुसें। फिर घर का माहौल देखकर ही हैलमेट उतारें। और अगर आप कार यूज करते हैं तो पहले से ही आऊटिंग का प्रोग्राम बना लें। खुद घर  में घुसने की बजाय पत्नी को बाहर बुलाएँ। इन छोटी बातों को अपनी आदत बनाकर इस रोग के प्रभावों से बचा जा सकता है।
अभी वक्त है एक ब्रेक का। ब्रेेक के बाद क्राइम रिपार्टर बताने वाला है कि कौन था वह अन्धा चश्मदीद गवाह?

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


सुरेन्द्र दुबे (जयपुर) की पुस्तक
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Friday, October 16, 2015

जय रेगिस्तान

ददुआ, वीरप्पन या ठोकिया देश के किसी भी हिस्से में पलें बढ़ें या रहें लेकिन राजस्थान में नहीं आ सकते। यहाँ पर कोई कितना भी बड़ा हिस्ट्रीशीटर हो वह उनके जैसा बन नहीं सकता। कैसे बन सकता है? आखिर हम लोग इतना तगड़ा प्रिकोशन लेते हैं कि राजस्थान में जंगल ही नहीं उगने देते हैं।
हमारे यहाँ अगर गलती से कोई पौधा उग आता है तो तुरंत सरकारी अधिकारी जाता है और उसे अपनी देखरेख में कटवाता है। आप क्या समझते हैं कि हमने अपने यहाँ रेगिस्तान को फोकट में पनाह दे रखी है? नहीं साहब, हमने इसे बड़े एहतिहात से संभाल रखा है। इसकी जगह अगर जंगल उग आया तो ठोकिया आ जाएगा। कोई नया वीरप्पन या ददुआ पनप जाएगा। आखिर कानून और व्यवस्था भी तो कोई चीज है!
जिन दिनों वीरप्पन जीवित था मैं उसे प्रत्येक कवि सम्मेलन में चुनौती देते हुए कहता था-''वीरप्पन अगर तुझमेंं हिम्मत हो तो राजस्थान में आकर दिखा।'' ऐसी चुनौती कोई, किसी को, कैसे दे सकता है? लेकिन मैं उसे हर मंच से खुलेआम चुनौती देता रहता था, इसलिए नहीं कि मुझे यहाँ की पुलिस की बहादुरी पर ओवर कॉन्फीडेन्स था। लेकिन मैं ऐसा इसलिए करता था क्योंकि मुझे पता होता था कि माइक की आवाज भले ही कितनी भी तेज क्यों न हो उस तक नहीं जा सकती थी। और भले ही चले भी जाए तो मेरी भाषा उसकी समझ में आ ही नहीं सकती थी। क्योंकि मेरी हिन्दी जब हिन्दी भाषियों की समझ में भी मुश्किल से आ पाती है तो फिर उसकी समझ में आने का सवाल ही नहीं उठता।
एक बार ट्री गार्ड में जीवित पौधे दिखाई दिए तो मुझे अपनी आँखों पर भरोसा ही नहीं हुआ। लिहाजा मैंने चश्मा लगाकर देखा फिर उन्हें छूकर कन्फर्म किया। मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि ट्री गार्ड और जीवित पौधे दोनों एक साथ कैसे हो सकते हैं? बचपन से मैं यही देखता आया हूँ कि ट्री गार्ड होगा तो उसमें पौधा नहीं होगा और अगर जीवित पौधा हुआ तो वह ट्री गार्ड मेें नहीं होगा। केवल सूखे हुए मृत पौधे ही ट्री गार्ड की शोभा बढाते रहे हैं। जानकार लोग यही कहते हैं कि हमारे यहाँ उन दोनों का एक साथ होना कानून और व्यवस्था के लिए अशुभ है।
राजस्थान में शान्ति और सुख-चैन का प्रबल पक्षधर होने के नाते यह देखकर मेरा खून खौल गया। मैंने एक पुलिस अधीक्षक से कहा-''ठोकिया जैसा कोई डकैत लगता है कि वन विभाग के साथ मिलकर यहाँ बसने की योजना बना रहा है। मैंने ट्री गार्ड में लगे हुए जीवित पौधे अपनी आँखों से देखे हैं। मुझे तो किसी बड़े षडयंत्र की संडाध आ रही है।'' मेरी बात सुनते ही वह तपाक से बोला-''आप फिजूल ही हमारे कर्मठ, निष्ठावान और ईमानदार वन अधिकारियों पर शक कर रहेे हैं। उनके रहते ऐसा कैसे हो सकता है? हो ही नहीं सकता। वे तो बेचारे पौधे लगाने के नाम पर सिर्फ गड्ढे ही खुदवाते है। गलती से भी उस गड्ढे में कोई पौधा उग जाए तो उसे भूलकर भी पानी नहीं पिलाते। पिला भी कैसे सकते हैं? सिर्फ पौधे लगाने का बजट आता है। सिंचाई का तो बजट आता ही नहीं। खैर, फिर भी पता लगाने की कोशिश करते हैं कि किसने ये हरकत किस इरादे से की है? कलेक्टर साहब को भी सूचना कर देता हूँ।''
उसी दिन शाम पाँच बजे डी.एफ.ओ. साहब खुद उपस्थित होकर कलेक्टर साहब को बता रहे थे-''सर मैंने आज ही वे सारे पौधे उखड़वा दिए हैं और सारे ट्री गार्ड जब्त किए जा चुके हैं। सारे रेंजर और फोरेस्ट गार्ड यह पता लगाने में जुट गए हैं कि आखिर ये पौधे लगवाए किसने हैं। इसके पीछे उनका इरादा क्या था? एक दो दिन में सब कुछ पता चल जाएगा। वैसे अनुमान ये है सर, कि पिछले दिनों अचानक हुई बारिश में ये पौधे उग आए होंगे। कुछ शरारती तत्वों ने हमें परेशान करने के इरादे से उन्हें ट्री गार्ड पहना दिए होंंगे। स्टाफ की शॉर्टेज होने की वजह से अपने किसी कर्मचारी की नजर उन पर नहीं पड़ी इसलिए ये इतने जीवित भी रह गए।'' कलेक्टर साहब ने चेहरे पर संतोष का भाव देखते ही उन्होंने जय रेगिस्तान का नारा लगाया और आफिस से बाहर आ गए।
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


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Thursday, October 15, 2015

फिल्मी डायरी के अंश-दंश

पेज 1

मैं फिल्मों के बारे में उतना ही जानता हूँ जितना कि फिल्म वाले साहित्य के बारे में जानते हैं। अज्ञानता में मामला टक्कर का है। यदा-कदा वे साहित्य की टाँग तोड़ते रहते हैं और मैं फिल्मों की। मैं छोटे और बड़े पर्दे की गतिविधियों पर निरंतर लिखता रहता हूँ क्योंकि आजकल लिखने के लिए हमारे यहाँ जानना जरूरी नहींं है।

पेज 2

जॉन अब्राहम के साथ प्रेम की पींगे बढ़ाते-बढ़ाते ही बिपाशा को जाने क्या सूझी कि उसने मशहूर फुटबालर रोनाल्डो के गालों का चुम्बनाभिषेक कर दिया। बिपाशा के दीवानों की आँखों में जॉन हमेशा खटकता रहता था इसलिए वे बेहद खुश हुए। एक बोला- चलो मैडम कुछ आगे तो बढ़ी। लाइन में लगे रहो,किनारे पर बैठे रहो, कभी तो लहर आएगी। दूसरे ने कहा-अच्छा हुआ जो जॉन का पत्ता कटा। खामखाँ वह मुझे इन्फीरियरिटी कॉम्पलेक्स दे रहा था। बिपाशा अगर मेरी नहीं है तो जॉन अब्राहम की भी नहीं है। तीसरा बोला-अच्छा हुआ जो बिपाशा के साथ मेरा अफेयर शुरू ही नहीं हुआ। वरना आज समाज में मेरी क्या इज्जत रह जाती? चौथे ने कहा-मैं तो पहले से ही जानता था कि ये लड़की मेरे काबिल है ही नहीं। अगर इसे अच्छे-बुरे का ज्ञान होता तो क्या ये मेरे रहते जॉन के चक्कर में फँसती?
बहरहाल स्व. दुष्यन्त कुमार की ये पंक्तियाँ उन्हें सादर समर्पित-
तुम्हारे पाँव के नीचे जमीन ही नहीं।
ताज्जुब है कि तुम्हें यकीन ही नहीं।।
खैर बिपाशा के प्रेम की ट्रेन का रोनाल्डो आखिरी स्टेशन नहीं है इसलिए वह सैफ अली खान के साथ घूमने लगी है। वह जानती है कि रोनाल्डो एक फुटबालर है। फुटबालर का क्या भरोसा जाने कब किक मार दे। अत: उसे शायद यह लगने लगा है कि वह अब सैफ के साथ ही सेफ है।

पेज 3

एक हैं सैफ अली खान। अभिनय ने उन्हें इतनी शोहरत नहीं दी जितनी उन्हें अफेयर्स ने दी है। सो सुबह से शाम तक इसी काम में लगे रहते हैं। लोग जैसे कपड़े बदलते हैं वे अपने लफड़े बदलते हैं। दूसरे हीरो जिस रफ्तार से फिल्में साइन करते हैं वे अफेयर साइन करते हैं। वे स्क्रिप्ट देखकर-सुनकर फिल्म साइन करते हैं ये अफेयर साइन करके उसकी स्क्रिप्ट लिखने में जुट जाते हैं। अमृता,विद्या,रोजा,बिपाशा आदि आदि गर्लफ्रेण्ड्स की एक कतार। खुदा खैर करे।

पेज 4

पार्टनर फिल्म देखते हुए एक अधपढ़ी लड़की ने दूसरी अधपढी लड़की से प्रश्न किया कि इनमें से फुल नर कौनसा है और पार्टनर कौनसा है?

पेज 5

फिल्म 'बुड्ढा मर गया' को देखने के बाद राखी सावंत के दीवाने उस अस्पताल की तलाश में जुट गए हैं जिसमें उसे बहुत कम कपड़ों में नर्स की नौकरी करते हुए दिखाया गया है। सभी के मन में सामूहिक रोगेच्छा जाग्रत हो गई है। महाभारत काल में जैसे भीष्म पितामह को इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था, काश उनकी जन्मकुण्डली में भी 'इच्छा रोग योग' होता!

पेज 6

 नाम तो विवेक ओबेराय है पर विवेक है ही नहीं। ओबे कहकर कोई राय ले तो फिर सामने वाला राय भी क्यों दे। विवेक में अगर विवेक होता तो वह पहले एश्वर्या से शादी करता और बाद में प्रेम। फोकट में सलमान से भी पंगा लिया और जिसके लिए पंगा लिया वह भी छोड़कर चली गई। बेचारा विवेक-घर का रहा न घाट का।

पेज 7

हम मेरा रंग दे बसंती चोला से चले और फिर चोली के नीचे पहुँच गए। आजकल जिगर की आग से बीड़ी जला रहे हैं। अजीब-अजीब शब्दावली फिल्मी गानों में आ रही है। मैं आज तक समझ नहीं सका कि ये चेनकुली की मेनकुली किस भाषा के शब्द हैं। इन दिनों एक गाना चल रहा है- शक लग लग लग लग लग बूम-बूम। पता ही नहीं चलता कि भाई गाने गा रहा है या किसी के पीछे कुत्ते लगा रहा है?

पेज 8

सारे अभिनेता अक्सर एक बात कहते हैं कि अमुक फिल्म में उसका ऐसा करेक्टर है या वैसा करेक्टर है। वह पहले करेक्टर पर ध्यान देता और बाद में फिल्म साइन करता है। वास्तविक जीवन में जिनका कोई करेक्टर है ही नहीं वे करेक्टर को लेकर कितने रिजिड हैं?

पेज 9

हिमेश रेशमियाँ ने टोपी को ग्लेमराइज करके गंजों के हीरो बनने का रास्ता खोल दिया है। अब रितिक की टक्कर अपने पापा से भी हो सकती है।

पेज 10

फिल्मों में अफेयर वह होता है जिसमें कुछ भी फेयर होता ही नहीं है। इसीलिए आज होता है और कल टूट भी जाता है। होने पर पब्लिसिटी और टूटने पर भी पब्लिसिटी। दोनों हाथ लड्डू। ऐसे में अफेयर वे ही लोग कर रहे हैं जो कि पब्लिसिटी के बारे में ज्यादा अवेयर हैं।

पेज 11

राम गोपाल वर्मा ने शोले की रीमेक के नाम पर आग बनाई। आग लगने से पहले ही ठण्डी हो गई। फिल्म व्यवसाय से जुड़े लोग नकल को कितनी बेशर्मी से क्रिएशन की संज्ञा देते हैं। अब उनसे यह जानना बहुत इन्टे्रस्टिंग होगा कि आप अगर नकल को क्रिएशन कहोगे तो फिर क्रिएशन को क्या कहोगे? करोड़ों रूपये खर्च करके अगर आपको कुछ करना ही है तो फिर ऐसा कुछ क्यों नहीं करतेे कि दुनिया आपकी नकल करे।
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


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Monday, October 12, 2015

भारतीय क्रिकेट की बीमारियाँ

मुझे तो लगता है कि भारतीय क्रिकेट टीम पर किसी प्रेतात्मा का साया है। वरना जो खिलाड़ी प्रथम चौबीस खिलाडिय़ों में अपनी जगह नहीं बना सका वह पहले सोलह खिलाडिय़ों में कैसे जगह पा गया? मुझे पक्का शक है कि वह प्लेइंग इलेवन में भी आ ही जाएगा। इसलिए भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को कोच की जगह किसी तांत्रिक की सेवाएँ लेनी चाहिए जो उसे ऐसी प्रेतबाधा से निजात दिला सके।
टीम इण्डिया को कोच मिलता है तो कैप्टन नहीं मिलता। कैप्टन मिलता है तो कोच नहीं मिलता। कैप्टन और कोच मिल जाए तो दोनों का आपस में सोच नहीं मिलता। कोच के रहते ताकतवर टीम भी हारने लगती है। बिना कोच कमजोर टीम भी जीतती चली जाती है। मैनेजर ही टीम को जिता लाता है। फिर भी हमें कोच की जरूरत है। कोच भी विदेशी हो। इसलिए कि कहीं हमारी टीम को हारने की आदत नहीं छूट जाए। सचमुच हारने के लिए मेेहनत करने में हमारा कोई मुकाबला नहीं। बीसीसीआई के अधिकारी मेहनत में कसर नहीं छोड़ते। कोच चाहिए तो कोचेज की पूरी फौज बना दी। बेटिंग कोच, बॉलिंग कोच, फील्डिंग कोच। कोचेज का कोच। धीरे-धीरे एक स्थिति ऐसी भी आएगी कि विदेशी दौरे पर टीम के सोलह खिलाडिय़ों के साथ बत्तीस कोच होंगे।
यह भी एक समस्या है कि कैप्टन किसे बनाएँ? बेट्समैन को कैप्टन बनाते हैं तो टीम एक-एक रन के लिए तरस जाती है और बॉलर को कैप्टन बनाते हैं तो विकेट्स के लाले पड़ जाते हैं। ऐसे में सलेक्टर्स ने विकेटकीपर को कैप्टन बनाकर ट्वन्टी-ट्वन्टी वल्र्ड कप में भेज दिया। सोचा हार भी गए तो कोई बात नहीं। लेकिन यह क्या? वह तो टीम को जिता लाया। राहत की बात तो यह रही कि वह सबसे ज्यादा फिट खिलाड़ी भी अनफिट हो गया। वरना सारी समस्याओं के हल हो जाने पर बोर्ड के अधिकारी बेरोजगार हो जाते। समस्याएँ रहती हैं तो उन्हें भी काम मिल जाता है।
बोर्ड के अधिकारी भी करें तो क्या करें? जिसे चयन की जिम्मेदारी सौंपते हैं वही सच बोलने लगता है। ऐसे में चयनकर्ता के लिखने-बोलने पर पाबन्दी तो जरूरी है ही। वरना उनकी पोल नहीं खुल जाएगी? पिछले दिनों टीम इण्डिया की सलेक्शन कमेटी के चेयरमैन दिलीप वेंगसरकर हिट विकेट आउट होते-होते बचे। तभी तो कहते हैं क्रिकेट बाइ 'लक'। ये 'लक' नहीं तो और क्या है? जिन्होंने कभी क्रिकेट नहीं खेली वे किसी भी इन्टरनेशनल क्रिकेटर को जब चाहें आउट कर सकते हैं और दूसरी तरफ सारे क्रिकेटर मिलकर बोर्ड के एक भी अधिकारी को आउट नहीं कर सकते।
टीम के बेट्समैन रन बनाएँ और बॉलर भी विकेट चटकाने लगें तब फील्डिंग में प्राब्लम आ जाती है। बेचारे फील्डर एक-एक रन रोकते हैं तो बाउण्ड्रीज नहीं रोक पाते। बाउण्ड्रीज रोकते हैं तो कैच छूट जाते हैं। कैच पकड़ते हैं तो रन आउट के अवसर छोड़ देते हैं। हमारी तकदीर में तो क्रिकेट देखते-देखते दु:खी होना ही लिखा है। हमारे फेवरेट बेट्समैन की सेंचुरी बननी है तो हम मैच हार जाते हैं। मैच जीतते हैं तो हमारे फेवरेट बेट्समैन की सेंचुरी नहीं बनती।
खिलाड़ी तो हमें अक्सर निराश करते हैं। हारने के बावजूद हँसकर तो कभी फिक्सिंग के मामलोंं में फँसकर। लगता है कि न तो खिलाडिय़ों को जीतने में रुचि है और न बोर्ड के अधिकारियों की। कहते हैं खेल को खेल की भावना से खेलो। आखिर वह दिन कब आएगा जब हम जीत की भावना से भी खेलने लगेंगे।
असली खिलाड़ी कौनसे हैं? यह शोध का विषय है। क्या वे जो मैदान में खेलते हुए नजर आते हैं? या वे जो बोर्ड के आफिस में बैठकर हमेेशा खेलते ही रहते हैं और कभी दिखाई भी नहीं देते। क्रिकेटर तो गेंद और बल्लेे से खेलते हैं लेकिन बोर्ड के अधिकारी क्रिकेट से खेलते हैं।
कुल मिलाकर भारतीय क्रिकेट अनेक लाइलाज बीमारियों से आभूषित हैं। हालत इतनी खतरनाक है कि उसने क्रिकेट को विकसित करने के लिए बाकी सारे खेलों को बीमार कर दिया है। ठीक वैसे जैसे अमरबेल जिस पेड़ पर चढ़ती है उसे सुखा ही देती है।
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


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Thursday, October 8, 2015

सपने में सेल्यूलर जेल

वैसे जेल जाना कोई गर्व की बात नहीं है। लेकिन अगर कोई काला पानी की सेल्यूलर जेल गया हो तो इससे ज्यादा गर्व की और कोई बात नहीं हो सकती। सेल्यूलर जेल के बारे में आज का यूथ ज्यादा जानता नहीं है। इसलिए कि पिछले साठ वर्षों में हमें आजादी का इतिहास तो मिला नहीं लेकिन इतिहास को अपनी जरूरत के हिसाब से लिखने की आजादी जरूर मिल गई।
परिणाम ये है कि मैंने एक बच्चे से पूछा-भगतसिंह के बारे में क्या जानते हो? उसने जवाब दिया कि भगतसिंह वह जिसका रोल बॉबी देओल, अजय देवगन और मनोज कुमार ने अलग-अलग फिल्मों में किया है। सचमुच इतिहास के प्रति लापरवाही ने हमारे वर्तमान की ये हालत बना दी है।
हमारे प्रजातंत्र और आजादी की रक्षा के लिए यह जरूरी है कि एक ऐसा कानून जरूर बने जिसमें राजनीति में जाने से पहले हर आदमी के लिए यह जरूरी हो जाए कि वह एक बार पोरबन्दर और एक बार सेल्यूलर जेल अवश्य जाए। वह गाँधीजी के जन्मस्थल तथा सशस्त्र क्रांतिकारियों के वधस्थल पर गए बिना आजादी की अनमोलता को ठीक से नहीं समझ सकता।
लेकिन हमारे देश में प्रजातंत्र का खेल ही अजीब है। यहाँ तंत्र को प्रजा के हिसाब से नहीं चलना पड़ता। प्रजा को तंत्र के इशारों पर चलना पड़ता है। तंत्र काम को नहीं देखता। सर्टिफिकेट को देखता है। काम भले ही आपने किया हो या नहीं, सर्टिफिकेट जरूरी है। फाइल में वही लगता है लिहाजा पोर्टब्लेयर यात्रा के दौरान जब मैं सेल्यूलर जेल देखकर निकला तो मैंने वहाँ के अधिकारी से सर्टिफिकेट माँग लिया। उसने पूछा- किस बात का सर्टिफिकेट? मैंने कहा-इस बात का कि मैं सेल्यूलर जेल में आया था। उसने पूछा-क्या करोगेे? मैंने जवाब दिया समय आने पर स्वतंत्रता सेनानी कहलाने की तिकड़म भिड़ा लूँगा। बाद में कौन देखता है कि मैं कब किस वजह से यहाँ आया? हमारा तंत्र सिर्फ सर्टिफिकेट देखता है। असलियत कहाँ देखता है?
खैर सेल्यूलर जेल देखकर मैं सर्किट हाउस लौटा तो बिस्तर पर लेट गया। लेटते ही मुझे नींद आ गई। नींद में सपना आया। सपने में मुझे लगा कि जैसे भारत में यह कानून बनकर लागू भी हो गया है कि राजनीति में वही आदमी आ सकेगा और रह सकेगा जिसने कम से कम एक बार सेल्यूलर जेल के दर्शन किए हों। लिहाजा वर्तमान और पूर्व नेताओं के जत्थे जेल के दर्शनार्थ आने लगे। इधर जिन क्रांतिकारियों को इस जेल में फाँसी हुई थी मेरे सपने में पुन: जी उठे। उन्होंने जेल का प्रशासन अपने हाथ में ले लिया है। सभी पार्टियों के नेताओं का पहला जत्था ज्योंही जेल में घुसा क्रान्तिकारी फटी-फटी आँखों से उन्हें देखने लगे। एक ने दूसरे से कहा-हमें तो सूचना थी कि हमारे आज के नेता आने वाले हैं। इनकी शक्ल देखकर तो लगता है कि ये नेता नहीं हो सकते। फटाफट इनका रिकार्ड चैक करो। रिकार्ड देखते ही पता चला कि जत्थे के कई माननीय सदस्यों पर हत्या, अपहरण, बलात्कार आदि के कई मुकदमे चल रहे हैं। बस फिर क्या था। एक सीनियर क्रान्तिकारी ने आदेश दिया कि जेल का दरवाजा बन्द कर दो। ध्यान रहे कि ये यहाँ से निकल न जाएँ। अगर ये वापस चले गए तो देश को एक जेल बना देंगे। आजादी और लोकतंत्र के लिए ये बेहद खतरनाक है।
सेल्यूलर जेल का दरवाजा बन्द कर दिया गया। नेता लोग बाहर निकलने के लिए छटपटाने लगे। एक नेता ने तो क्रान्तिकारी अधिकारी को सस्पेन्ड कराने की धमकी भी दे दी। खैर साहब, वह क्रान्तिकारी कोई सरकारी अफसर तो था नहीं इसलिए उसे गुस्सा आ गया। उसने अपने साथियों से कहा-जाओ वह अंग्रेजों वाला हंटर लाओ। इनके साथ वह सब करो जो अंग्रेजों ने हमारे साथ किया था। खैर तभी मेरी नींद खुल गई। सपना टूट गया। काश वह सपना सच हो जाता। लेकिन इतने अच्छे सपने सच कहाँ होते हैं?
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


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Wednesday, October 7, 2015

फिक्सिंग के पीछे क्या है?

हमारी समझ में कुछ भी नहीं आता था, जब किसी दुर्दान्त बल्लेबाज के आउट होते ही कमेन्ट्रेटर बताता था कि ये नब्बे मिनिट क्रीज पर रहे, कुल छप्पन गेंदों का सामना किया और इन्होंने चार बहुमूल्य रन बनाये।
मैं कतई नहीं समझ पाता था कि वे चार रन बहुमूल्य कैसे थे, लेकिन जब से मैच फिक्सिंग करने वाले खिलाडिय़ों की कलई खुली है तब से हर कोई समझ गया है कि वे चार रन बहुमूल्य ऐसे थे!
बीस से कम रन बनाने पर कम से कम बीस लाख रूपये मिलने का एग्रीमेन्ट था। इसीलिए अगर वह एक रन भी नहीं बनाता तब भी तयशुदा रुपया तो मिल ही जाता। लेकिन क्रीज पर जाते ही मन नहीं माना। आखिर देशभक्ति भी तो कोई चीज होती है, इसलिए चरण कमलों को तकलीफ देनी पड़ी। अन्तत: चार बेशकीमती रनों का योगदान दे ही दिया। इसे कहते हैं देशभक्ति!
दरअसल वे चार रन 'बेशकीमती' नहीं अपितु 'बेसकीमती' थे, क्योंकि उनका बेस बहुत कीमती था। यानि एक बार बाइस गज तेज दौडऩे की कीमत या लागत पाँच लाख रुपये। कुल अट्ठासी गज दौडऩे का मूल्य हुआ, पूरे बीस लाख रुपये। बहुत थकान हुई होगी इतना दौडऩे में हमारे लाड़ले बल्लेबाज को।
हमारे शहर के क्रिकेट विशेषज्ञों की मेरिट में पनवाड़ी के बाद मेरा ही नम्बर आता है। बाद में इसलिए कि जब मैं उसकी दुकान पर खड़ा होकर तर्क लड़ाता हूँ तब वह मुझे फोकट में पान खिलाता है। मेरिट भी इसी दौरान बन रही होती है। अत: मुझे लिहाज में नैतिकतावश दूसरे नम्बर पर रहना पड़ता है। जब मैं खुद मुफ्त के पान के चक्कर में पनवाड़ी का इतना लिहाज रखता हूं तब नैतिकता से ओत-प्रोत हमारे खिलाड़ी लाखों रुपयों का गुप्त लाभ पहुँचाने वाले सटोरियों का लिहाज क्यों न रखें?
अगर आपको यह भ्रम है कि आप क्रिकेट की तमाम बारीकियों से वाकिफ हैं तब आप उस भ्रम को पुख्ता करने के लिए सटोरियों औैर उनके हैरतअंगेज कारनामों के रिकॉड्र्स को भी रट लीजिये, नहीं तो आप क्रिकेट में मिडिलची ही कहलायेंगे। 'मैच फिक्सिंग' इस खेल का एडवान्स कोर्स है अर्थात् एक जरूरी डिप्लोमा। इसे कहते हैं डवलपमेन्ट जो कम से कम क्रिकेट ने ही तो किया है।
सटोरिये भी हमारे खिलाडिय़ों पर पूरी तरह अभिभूत हैं। इतने ऊँचे चरित्र वाले खिलाड़ी उन्हें आसानी से और कहाँ मिल सकते हैं? वे जानते हैं कि उस बल्लेबाज का एग्रीमेंट तो सिर्फ इतना सा था कि उसे बीस लाख रूपयों के बदले बीस से कम रन बनाने थे। उसने न केवल चार ही रन बनाये बल्कि दो साथी खिलाडिय़ों को रन आउट भी करवाया। इस महान योगदान के लिए अतिरिक्त राशि की मांग भी नहीं की। इतना ही नहीं जब तक हार सुनिश्चित नहीं हो गई तब तक पट्ठा मैदान में डटा रहा। बेईमानी का काम पूरी ईमानदारी से करने में हमारे खिलाडिय़ों का कोई जवाब नहीं है।
अब इन सवालों पर चर्चा करके समय बर्बाद करने की कोई जरूरत नहीं रह गई है कि निर्णायक क्षणों में अमुक गेेंदबाज विकेट क्यों नहीं ले पाता है? संकट के समय कप्तान जरूरी गेंदबाज को गेंद क्यों नहीं थमाता है? संघर्ष की बजाय धाकड़ बल्लेबाज नाजुक मोड़ पर क्यों अपना विकेट आसानी से खो देता है? आखिर लिहाज और नैतिकता का ही दूसरा नाम तो मैच फिक्सिंग है।
हम इतने बेवकूफ निकले कि क्रिकेट को युद्ध की तरह देखने लगे और खिलाडिय़ों को सीमा प्र्रहरी सैनिकों जैसा मानने लगे। यह तो अच्छा हुआ कि हमने युद्ध को क्रिकेट की तरह नहीं देखा। वरना हम सैनिकों को भी क्रिकेटरों जैसा समझने लग जाते। तब सचमुच बड़ा अनर्थ हो जाता। क्रिकेटर्स जैसा कहलवाने पर सैनिकों का क्या सम्मान रह जाता। आखिर देशभक्ति और दुकानदारी में अन्तर तो करना ही चाहिए। तभी तो हम छाती ठोक कर कहते हैं कि हम उतने बेवकूफ भी नहीं हैं।
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


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Tuesday, October 6, 2015

सकारात्मक क्रिकेट

हमारे नेताओं और क्रिकेटरों में कम से कम एक फर्क तो जरूर है। वह यह कि हमारे नेता अक्ल के पीछे लट्ठ लेकर घूमते हैं और हमारे क्रिकेटर लट्ठ के पीछे अक्ल लेकर। घूमते दोनों ही है। कई बार तो ये घूमते-घूमते इतना घूम जाते हैं कि इन्हें देखकर 'यू टर्न' भी शर्मसार हो जाता है।
कुछ भी हो परिणाम एक ही है। यहाँ सरकार की दुर्गति हो रही है तो मैदानों में भारतीय क्रिकेट टीम की। इनकी परफोरमेंस से जनता निराश है तो उनकी परफोरमेंस से क्रिकेट प्रेमी हताश हैं। लोकसभा का चुनाव जीतने के बाद हमारी भारत सरकार की प्रमुख पार्टी अनेक राज्यों के विधानसभा चुनावों में हार गई। उधर घरेलू पिचों पर कुछ मैच जीतने के बाद हमारी क्रिकेट टीम विश्वकप में अपना सूपड़ा साफ करवा बैठी।
दरअसल सरकार और क्रिकेट टीम दोनों की दशा और दिशा एक जैसी है। कप्तान अगर अच्छा खेलता है तो टीम के बाकी सदस्य फिसड्डी साबित होते हैं। लेकिन जब टीम के बाकी सदस्य ठीक-ठाक प्रदर्शन करते हैं तो कप्तान लीद कर देता है। भारतीय क्रिकेट टीम में फिटनेस की समस्या है तो सरकार के मंत्रीमंडल में फाइटनेस की। नेताओं और क्रिकेटरों का फिटनेस लेवल सिर्फ इतना सा है कि वे आपस में फाइट करने के अलावा और कुछ कर ही नहीं सकते।
सबसे बड़ी समस्या तो कोच और सोच की है। सरकार के पास कोच है ही नहीं तो सोच कहाँ से आएगी? उधर भारतीय क्रिकेट में कोच की सोच ही सबसे बड़ी समस्या साबित हुई है। दोनोंं का मिडिल ऑर्डर हमेशा दबाव में रहता है। यहांँ मंत्रीमंडल के गठन को लेकर विवाद है तो वहाँ टीम के गठन को लेकर। दोनों में बारहवांँ खिलाड़ी तक कप्तान बनने की जुगत भिड़ाता रहता है।
क्रिकेट टीम में कुछ खिलाड़ी टीम पर बोझ बने हुए हैं तो इधर कुछ मंत्री सरकार पर भार हैं। लेकिन इस बोझ को अगर हटा दें तो इधर सरकार उड़ जाएगी और उधर टीम बिखर जाएगी।
कथनी और करनी का अन्तर दोनों ही जगहों पर मौजूद है। क्रिकेटर बात तो 'सकारात्मक क्रिकेट' खेलने की करते हैं लेकिन मैदान में उतरते ही 'सरकारात्मक क्रिकेट' खेलने लगते हैं। उधर हमारे प्रधानमंत्री 'क्रिकेटात्मक सरकार' चलाने के लिए मजबूर हैं।
दोनों ही कम बोलते हैं। दोनों ही विनम्र हैं। दोनों ही अक्सर हार जाने के अभ्यासी हैं लेकिन दोनों ही टीम की जीत के लिए एकल प्रयास करते हुुए दिखाई देते हैं। सामने वाली टीम के अधिक खराब प्रदर्शन की वजह से कभी कभार एक-आध मैच भी जीत लेते हैं। दोनों की अपने-अपने चयनकर्ताओं के साथ सैटिंग इतनी तगड़ी है कि इनका प्रदर्शन चाहे कितना भी खराब क्यों न हो, इन्हें हटाया नहीं जा सकता।
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


सुरेन्द्र दुबे (जयपुर) की पुस्तक
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Monday, October 5, 2015

मैच फिक्सिंग ट्रेनिंग सेन्टर

सावन के अन्धे को हरा ही हरा दिखता है और क्रिकेट के अन्धे को फिक्सिंग ही फिक्सिंग। मैं सावन में तो अन्धा हुआ नहीं, क्रिकेट में हो गया। क्रिकेटान्धता की असीम अनुकम्पा से मुझे दिव्य-दृष्टि प्राप्त हुई। मेरे प्रज्ञा चक्षु अचानक खुल गए और मुझे घर-घर में, हर तरह की मैच फिक्सिंग के विविधरूपा दर्शन होने लगे।
मैच देवरानी और जेठानी नामक दो खूँखार एवं परम्परागत प्रतिद्वंद्विनियों के बीच था। अवसर था घर में सामानों का बँटवारा। खिलाडिय़ों में संघर्ष था और दर्शकों में रोमांच। पर देखते ही देखते मैच में एक नाटकीय मोड़ आया। संघर्ष और रोमांच दोनों एक साथ गायब हो गए क्योंकि अब सास नामक सामान का नम्बर था। दोनों ही मैच हार जाने की जी तोड़ कोशिश करने लगीं। क्रिकेट की भाषा में इसे कहेंगे ''डबलमैच फिक्सिंग।''
सास के पास उस बहु के साथ रहने के अलावा कोई चारा नहीं था जिसके हिस्से में उसे फिक्सिंग ने ला पटका था। बेचारी को लोक-लाज के आभूषण धारण करने का खामियाजा उठाना पड़ रहा था। लिहाजा अपने पालतू पति को विश्वास में लेकर उसे मैच फिक्स करना पड़ा। उस दिन मैच शुरू से ही रोमांचक हो चला था। जितनी सधी हुई गेंंदबाजी उतनी ही दमदार बल्लेबाजी। क्षेत्ररक्षण भी दोनों ही ओर से लाजवाब था। बहुत धैर्य से बल्लेबाजी कर रही सास की एकाग्रता अचानक भंग हुई। बस उसके मुँह से एक गलत वाक्य निकला कि ''मैं तुम्हारे साथ नहीं रहना चाहती।'' पुुत्र ने तुरन्त अनुपालना कर डाली, आखिर वह आज्ञाकारी जो ठहरा। बहु को मनवांछित फल की प्राप्ति हुई। क्रिकेट की भाषा में इसे कहेंगे ''अम्पायर के जरिये मैच फिक्सिंग।''
जेठानी के लड़के का विवाह होना था। घर में भगवान का दिया सब कुछ था, इसलिए माँगा कुछ भी नहीं था। सिर्फ सेवाभावी लड़की चाहिए थी। लेकिन लड़की का बाप अतिसज्जन निकला। उसने बिना माँगे ही, मना करने के बावजूद सब कुछ दिया। कलर टी.वी, फ्रिज, वाशिंग मशीन, कूलर, स्कूटर आदि। घर में बँटवारे के बाद हिस्से में आये दो कमरों वाले फ्लैट में इतनी जगह कहाँ थी कि दहेज में प्राप्त यह इतना सारा सामान रखा जा सके। मजबूरी वश लाड़ले बेटे और बहु को तुरन्त अलग करना पड़ा। बिना हिंसा और तनाव के परिवार बँट गया। लड़की के बाप का सपना साकार हुआ। क्रिकेट की भाषा में इसे कहेंगे, ''प्रायोजक द्वारा मैच फिक्सिंग।''
मैच फिक्सिंग के वातावरण में पल बढ़कर जब हमारे लाड़ले राष्ट्रीय क्रिकेट टीम की शोभा बढ़ायेंगे तब उन्हें इसके लिए अतिरिक्त कोचिंग की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। घर-घर में मैच फिक्सिंग का सतत् प्रशिक्षण निर्बाध गति से जारी है। मैदान में होने वाली मैच फिक्सिंग की जाँच तो सी.बी.आई. कर लेगी पर घर-घर में हो रही ऐसी फिक्सिंग की जाँच कौन करेगा? अस्तु, राजिया का प्रसिद्ध सोरठा याद आ रहा है-
डूंगर बळती लाय, दीखे सबने सामने।
पगां बळंती हाय, रत्ती न दीखे राजिया।।

सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


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Sunday, October 4, 2015

जलवे बाबा पैथी के

बेवकूफ था मुन्नाभाई। डाक्टर बनने के लिए फर्जीवाड़े से एम.बी.बी.एस. करने की जरूरत क्या थी? फिजूल ही इतने पापड़ बेले। पाखण्ड पूर्वक किसी बाबा का रूप धारण कर लेता और शुरू कर देता बाबागिरी। फिर उसे खुले आम डाक्टरी करने से कौन रोकने वाला था?
आजकल हमारे यहांँ डाक्टर बनने का शॉर्टकट है बाबागिरी। बाबा घोषित होते ही रास्ता साफ और मंजिल आसान। फिर आप कभी भी, कहीं भी और कैसे भी किसी भी बीमारी का इलाज कर सकते हैं। डाक्टरों पर सौ कानून है लेकिन बाबाओं पर कोई कानून नहीं। कोई थप्पड़ मारकर तो कोई लात मारकर इलाज कर रहा है। कोई मरीज के शरीर पर कौड़े बरसा रहा है, कोई मरीज के जिस्म में कीलें ठोक रहा है तो कोई ब्लेड से चीरे लगा रहा है। कोई सिर्फ  मरीज के जिस्म को छू देता है तो कोई कबूतर छुआकर कर रहा है इलाज। जो पाखण्डी जितना बड़ा सनकी वह उतना ही बड़ा डाक्टर । वाह! क्या अदा जलवे तेरे बाबा।
मैने एक पाखण्डी बाबा से कहा- आप तो बिना एनेस्थिसिया, बिना आपरेशन थिएटर, ब्लेड से ऑपरेशन कर रहे हैं। यह काम तो एलौपेथी करती है। आप जो कुछ कर रहे हैं वह साइन्स की दृष्टि से गलत है। मेरी बात सुनते ही बाबा बिफर गए। कहने लगे -'जानती क्या है तुम्हारी साइन्स और एलोपेथी? नजर लगने की बीमारी का इलाज है तुम्हारी साइन्स के पास? ऊपरी हवा का इलाज कर सकती है तुम्हारी साइन्स? इनका इलाज एलौपेथी में नहीं, बाबा पैथी में होता है।'  
बाबा की बात सुनते ही मुझ अज्ञानी के चक्षु खुल गए। मैं सोचने लगा कि इन पाखण्डी बाबाओं की बाबागिरी के सामने लगती कहाँ है बेचारे डाक्टरों की डाक्टरी? सप्ताह में हार्ड ड्यूटी के बाद सिर्फ  एक वीकली ऑफ। उसमें भी इमरजेन्सी कॉल पर जाओ। नाइट ड्यटी करो। मेले में ड्यूटी बजाओ। मिनिस्टर का दौरा हो तो एक टाँग पर खड़े रहो। उधर बाबागिरी में एक दिन काम और महीने में उनतीस दिन आराम। मिनिस्टर भी आएगा तो बाबा का आशीर्वाद लेकर जाएगा। डाक्टर के बजाय बाबागिरी में फ्यूचर ज्यादा ब्राइट है।  
भरपूर मेहनत के बावजूद लगातार दो बार पी.एम.टी. की परीक्षा में गच्चा खा चुके एक स्टूडेंट ने मृुझसे पूछा-''अब मैं क्या करूँ?'' मैंने किसी एक्सपर्ट कैरियर कन्सल्टेन्ट की तरह जवाब दिय ''तुरंत बाबा बन जाओ। डाक्टर बनकर अस्पताल खोलने की मंशा का त्याग करो। बाबा बनकर आश्रम खोलने की सोचो। फैला दो अपने चमत्कारों की अफवाह। करोड़ों अंधविश्वासी तुम्हारे इन्तजार में तड़प रहे हैं। भगवान की गुडविल अनलिमिटेड है। उन्हें तो इसे भुनाने की फुर्सत है नहीं। बाबा बनकर तुम ही भुना लो।''
मेरी बात सुनते ही उसकी आँखो में चमक आ गई। उसने पूछा-''लेकिन इससे फायदा क्या है? मैंने जवाब दिया-बाबागिरी से इलाज करने के तो कई फायदे हैं। न तो अस्पताल की बिल्डिंग चाहिए और न ही मँहगी मशीनें। न वार्ड चाहिए न आपरेशन थिएटर। लैब, एक्सरे, सोनाग्राफी की कोई जरूरत ही नहीं। क्वालीफाइड और टे्रन्ड स्टाफ भी नहीं खोजना। बाबा इज आल इन वन। डाक्टर तो कुछ खास बीमारियों के मरीज ही देखता है लेकिन बाबा किसी भी बीमारी का इलाज कर सकता है। कैंसर और एड्स जैसी लाइलाज बीमारियों के शर्तिया इलाज का धडल्ले से दावा कर सकते हैं आप, लेकिन बाबा बन जाने के बाद। बीमारी कुछ भी हो बाबा की वही चुटकी भर भभूत सबका इलाज कर देती है और वह भी बिना फीस के। बाबाओं से घबराकर ही तो समझदार डाक्टर विदेश भाग जाते हैं। बड़े जलवे हैं इस बाबापैथी के।''
अब उसे बाबागिरी में अपना सुनहरा कैरियर नजर आ रहा था। मेरी बातों से सहमत होते हुए उसने अन्तिम प्रश्न पूछा-''लेकिन बिना क्वालिफीकेशन के मैं बीमारी का डाईग्नोसिस कैसे करूँगा? मैंने कहा-''सीधा सा तरीका है। चढ़ावे में आया हुआ कोई नारियल उठाओ। उसे मोबाइल फोन की तरह कान और मुंँह के बीच लगाओ। भगवान से बात करने का ड्रामा करो। उनसे पारामर्श लेकर दे दो वही चुटकी भर भभूत। अरे बेवकूफ। सिर्फ बाबागिरी ही तो एक अकेला ऐसा फील्ड है जिसमें अयोग्यता ही सबसे बड़ी योग्यता है।''


सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


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Saturday, October 3, 2015

सरस्वती जी का त्याग पत्र

पिछले दिनों सरस्वती जी ने ब्रह्माजी को यह कहते हुए त्याग पत्र दे दिया कि अब मुझे नहीं रहना सरस्वती। आप मेरी जगह किसी अन्य सरस्वती को नियुक्त कर दीजिए। ब्रह्माजी ने पूछा-''देवी आप इतनी कुपित किसलिए हैं। ऐसा क्या हो गया जो आप अपना पद त्याग देने को आमादा हैं? सरस्वती जी ने जवाब दिया-''मैं अभी-अभी एक कवि सम्मेलन सुनकर आ रही हूँ। उस कवि सम्मेलन को सुनने के पश्चात् मैंने यह तय किया है कि अपने पद पर बने रहने का अब मुझे अधिकार नहीं है। नैतिकता के नाते मुझे अपना पद छोड़ देना चाहिए।''
ब्रह्माजी ने पूछा- देवी! ऐसा क्या हो गया उस कवि सम्मेलन में जो आप अपना पद छोड़ देने पर आमादा हैं? सरस्वती जी ने जवाब दिया-''क्या-क्या नहीं हुआ? कवि कह रहा था कविता मेरी है और कविता कह रही थी मैं दूसरे की हूँ। कवि कह रहा था कि जो रचना मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ, यह कविता है। और वह रचना कह रही थी कि मैं चुटकुला हूँ। आप ही बताओ इन टिपीकल मुकदमों का फैसला कैसे किया जाए?''
सरस्वती जी की बात सुनकर ब्रह्माजी का दिमाग चकराने लगा। उन्होंने कहा-''देवी! लेकिन ये सारे कवि तो आपके ही उपासक हैं। इन्हें समझा दीजिए। त्याग पत्र देने की क्या जरुरत?'' लेकिन बीच में ही बात काटते हुए सरस्वतीजी ने कहा- ''आपको पता नहीं है प्रभो! आजकल के कवि बड़े चालाक हो गए हैं। ये ऊपर से तो मुझमें श्रद्धा दर्शाते हैं लेकिन सच्चे मन से प्यार लक्ष्मी जी से ही करते हैं। ऐसे में उचित यह रहेगा कि आप मेरे डिपार्टमेंट का एडीशनल चार्ज लक्ष्मी जी को ही दे दें। रही इन मुकदमों की बात तो इनका फैसला तो उनका वाहन ही कर देगा। जाति बिरादरी का फैसला तो वैसे भी भारतीय न्याय शास्त्र में सर्वमान्य होता है।''
ब्रह्माजी बोले-''देवी आपका सुझाव बुरा नहीं है। लेकिन मैं आपका त्याग पत्र स्वीकार नहीं करुँगा। आप मुझे बताएँ कि आजकल के इन कवियों से आप क्या कहना चाहती हैं? मैं अभी सबको एस.एम.एस. कर देता हूँ। सब ठीक हो जाएँगे।''
ब्रह्मा जी की बात सुनकर सरस्वती जी ने कहा, ब्रह्मा जी आप आजकल के इन कवियों को एक एस.एम.एस. करने की रिस्क नहीं उठाएँ। वे इतने जुगाडू हैं कि आपके द्वारा किए गए एस.एम.एस. को ही कविता कहकर सुना देंगे। सरस्वती जी का तर्क सुनकर निरुत्तर हुए ब्रह्मा जी बोले- तब देवी आप ही अब इस समस्या का उपाए सुझाएँ।
इस पर ब्रह्माजी से सरस्वती जी ने जो कहा वह संस्कृत भाषा में एक श्लोक के रूप में था। उस श्लोक का हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है- हे ब्रह्माजी! आप इन कवियों को समझाइये कि कविता नहीं लिखने से न तो अपयश मिलता है। न किसी प्रकार की कोई व्याधि होती है, न पाप लगता और न ही नरक की प्राप्ति होती है। लेकिन बुरी कविता लिखने से और चुराई हुई कविता सुनाने से तथा चुटकुले को कविता बताने से इन चारों की प्राप्ति एक साथ होती है।
सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


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Friday, October 2, 2015

मास्टर जी की आत्मकथा


एक सरकारी स्कूल में टीचर बनकर मैं बहुत प्रसन्न था क्योंकि बड़ी मुश्किल से मुझे बेरोजगारी से निजात मिली थी। लेकिन मेरी खुशी ज्यादा दिन नहीं टिकी। गर्मियों की छुट्टियाँ बिताने के लिए आत्मगौरव से अभिभूत होकर जब मैं अपने गाँव पहुँचा तो एक बुजुर्ग ने मुझसेे पूछ लिया-''तेरी कहीं नौकरी लग गई है या अभी तक मास्टरी ही कर रहा है?'' दरअसल जिस मास्टरी को मैं जिन्दगी समझ रहा था उसे वे नौकरी मानने के  लिए भी तैयार नहीं थे।
खैर, मुझे उनसे क्या? मेरी खुशियों के क्षितिज सबसे अलग थे तो मेरी पीड़ाओं के पहाड़ भी सबसे अलग। मैं अच्छी तरह जानता था कि मैं गुरु नहीं शिक्षक हूँ। लेकिन लोग जब मुझे गुरुजी के नाम से संबोधित करते तो मैं उतना ही प्रसन्न होता जितना थानेदार के नाम से पुकारे जाने पर पुलिस का नया-नया काँस्टेबल खुश होता है।
अभी मैैंने टीवी के समाचारों में देखा है कि राष्ट्रपति के पद से रिटायर होने के बाद हमारे पूर्व राष्ट्रपति माननीय कलाम-सा एक स्कूल में जाकर बच्चों की क्लास ले रहे हैं। मैं सोचने लगा कि इन्हें मास्टर बनने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़े। पहले वैज्ञानिक बने। फिर राष्ट्रपति बने रहे तब जाकर स्कूल में पढ़ाने का मौका मिला। मैं कितने फायदे मेें रहा। बी.एड. की और डायरेक्ट मास्टर बन गया।
मैं थर्डग्रेड में टीचर था। यानी शिक्षकों में सबसे निचले दर्जे का शिक्षक। प्राइमरी स्कूल में पढ़ाने वाला। लोग भी कहते रहते थे कि असली शिक्षक तो वही है जो प्राइमरी स्कूल में क ख ग सिखाता है। लेकिन दूसरी असलियत यह थी कि स्कूल में मेरे पद से नीचे के पद पर सिर्फ चपरासी का पद ही होता था। जिस स्कूल में चपरासी का पद न हो वहाँ मैं चपरासी भी होता था। हैड मास्टर जी न हों तो वह भी मैं ही। मेरे चारों तरफ जिम्मेदारियाँ ही जिम्मेदारियाँ। अधिकार कुछ भी नहीं। इसे कहते हैं सच्चा राष्ट्र निर्माता।
स्कूल की बिल्डिंग टूटी-फूटी है तो बाहर बैठ कर पढ़ाओ। टाइम पर आओ और टाइम पर जाओ। नियमित पोषाहार का वितरण करवाओ। सूचनाएँ बनाकर ऊपर भिजवाओ। ये सब गंभीरता से करो फिर चाहे पढ़ाओ या ना पढ़ाओ।
शिक्षक एक मल्टीपरपज सरकारी कर्मचारी है। उससे अपेक्षा की जाती है कि वह नामांकन बढ़ाए, प्रवेशोत्सव मनाए, टूर्नामेंट कराए। ये सर्वे करे-वो सर्वे करे, ये गणना करे-वो गणना करे। सरकार गिर जाए तो चुनाव करवाए। मतदाता सूचियाँ बनाए। पेड़ लगवाए। परिवार नियोजन की प्रेरणा दे। फिर अगर टाइम मिल जाए तो बच्चों को पढ़ा भी दे।
दरअसल हमारे तंत्र में बिजली, पानी, चिकित्सा, पुलिस आदि महकमों की सेवाएँ तो आवश्यक सेवाओं की श्रेणी में आती है। शिक्षा इस आवश्यक श्रेणी में शामिल नहीं है। शायद यह अनावश्यक श्रेणी की सेवा होगी। जितनी अनावश्यक सेवा उतने ही अनावश्यक उस सेवा को देने वाले सेवक। शायद इसीलिए शिक्षक आज भी अपने वजूद की तलाश में है। ट्रांसफर को ही लीजिए। यह शिक्षक के जीवन का सर्वाधिक संवेदनशील पहलू है। लेकिन इसमें पंच, सरपंच, विधायक, सांसद सभी की चलेगी बस सिर्फ शिक्षक की ही नहीं चलेगी।
वजूद की बात पर मुझे एक मजेदार चुटकुला याद आया। पता नहीं किसने बनाया। लेकिन है जोरदार। एक बार एक राजा ने यह शर्त रखी कि मेरे हाथी के कान में एक बात कहकर कोई उसे हँसा देगा तो उसे इनाम मिलेगा। दूसरी बात कहकर गंभीर कर देने पर दुगुना इनाम मिलेगा और तीसरी बात कहकर रुला देने मुँह मांगा इनाम दिया जाएगा। कई लोगों ने प्रयास किए लेकिन हाथी न तो हँसा, ना गम्भीर हुआ और न ही रोया। अन्त में एक आदमी ने तीनों कार्य कर दिखाए। राजा ने कहा-''तू मुँह माँगे इनाम का हकदार तो है लेकिन यह बता कि तूने यह सब कर दिखाने के लिए इसके कान में क्या-क्या कहा? उस आदमी ने जवाब दिया कि सबसे पहले तो मैंने इसके कान में कहा कि मैं आज के दौर में भी ऐश-ओ-आराम से जीना चाहता हूँ। हाथी ने सोचा कि ये कितना बेवकूफ है लोगों को खाने के लिए रोटियाँ नहीं मिल रही हैं और यह मूर्ख ऐसे में ऐश-ओ-आराम की सोच रहा है! तो हाथी मेरी बेवकूफी पर हँस दिया। सीरियस इसलिए हुआ कि मैंने उसे दूसरी बात कही कि मैं एक स्कूल में टीचर हूँ। हाथी चिन्तित हुआ। स्कूल टीचर और ऐशओ आराम? कैसे संभव है? इसीलिए वह सीरियस हो गया। अन्तत: जब मैंने उसे बताया कि मैं टीचर भी प्राइमरी स्कूल का हूँ और इस समय अपना ट्रांसफर करवाने की जुगाड़ में हूँ तो मेरी बात सुनने के बाद मेरी दशा देखकर वह रो पड़ा।

सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)

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Thursday, October 1, 2015

मूल निवास प्रमाण पत्र

पिछले दिनों अपनी बिटिया का मूल निवास प्रमाण पत्र बनवाने के लिए सुबह ठीक साढ़े दस बजे कलेक्ट्रेट पहुँचा। दिन भर वहाँ के बाबुओं ने मुझे ऐसा चकरधिन किया कि शाम पाँच बजते-बजते तो मैं खुद अपना मूल निवास भूल गया। समस्या यह खड़ी हो गई कि अपना पता याद न रहने पर मैं घर कैसे जाऊँ? मजबूरी में मैंने भूल निवास प्रमाण पत्र के लिए अप्लाई किया तब जाकर घर लौट सका।
हुआ यों कि सावधानी से भरकर प्रस्तुत किए गए फॉर्म को बाबू ने लापरवाही से रिसीव किया। मैंने निवेदन किया-''देख लीजिए कहीं कोई गलती तो नहीं हो गई है?'' मैंने कहा-''मेरा परिवार पीढियोंं से यहाँ राजस्थान में रह रहा है। मेरे पिताजी भी यहाँ राज्य सेवा में रहकर रिटायर हुए। बच्ची भी यहीं पैदा हुई है और यहीं इसने अपनी सारी पढ़ाई की है। मेरी समझ से इसमें कोई प्रॉब्लम नहीं आनी चाहिए।'' वह बोला-''प्राब्लम का फैसला तो आपकी समझ से नहीं, हमारी समझ से होगा।''
खैर, फॉर्म के साथ अटेच्ड सपोर्टिंग डॉक्यूमेन्ट को देखते-देखते अचानक उसकी आँखों में चमक आ गई और उसके होठों पर एक विषैली मुस्कान तैरने लगी। उसने गर्दन उठाई तथा मेरी आँखों में आँखें डालकर कहा-''इन कागजात के आधार पर तो मूल निवास प्रमाण पत्र बनना बहुत मुश्किल है।'' उसकी बात सुनते ही मेेरे कॉन्फीडेन्स की हवा निकल गई। मैंने पूछा- ''क्या प्रॉब्लम है?'' उसने समझाया-''प्रॉब्लम ये है कि जिस जिले में आप दस साल से ज्यादा रहे हो, उसमें पिछले तीन वर्षों से लगातार नहीं रह रहे हो और इस जिले में आप अढाई साल से रह रहे हो तो यहाँ आप दस साल से नहीं रहे हो। सरकारी कर्मचारी के लिए भी नियम, पिछले तीन वर्षों से लगातार इस जिले में रहने का है। हाँ, 6 महीने बाद यह आराम से बन जाएगा।''
मैंने कहा-''यार ६ दिन बाद तो काउन्सलिंग है। मुझे जयपुर जिले का नहीं राजस्थान का मूल निवासी होने का प्रमाण पत्र दे दो। माँगा भी वही है।'' वह बोला-''माँगा तो राजस्थान का जाता है लेकिन नियमानुसार जिले का ही बनाया जाता है। राजस्थान के मूल निवासी होने का प्रमाण पत्र कहीं भी नहीं बनता। सारे पेच इसी बात में हैं। यहाँ तो सारा काम नियमानुसार ही होता है।'' मैंने सोचा यार। क्या गजब का दफ्तर है? सारा काम नियमानुसार ही होता है। नियम यह है कि सही काम अटकना जरूर चाहिए, भले ही फर्जी काम आराम से हो जाए।
मेरी बात सुनकर उसे झटका लगा। वह कहने लगा-''अब आप चाहे जो समझिए साहब पर काम तो नियमानुसार ही होगा। हम तो साहब के सामने पुट अप कर देंगे। फिर उनके विवेक पर है वे करें, ना करें। वैसे सरकारी काम में कौनसा अफसर है जो अपना विवेक लगाएगा? सरकारी विवेक तो हम हैं, हमारा विवेक ही काम आएगा।''
उसका सारगर्भित व्याख्यान सुनकर मेरे होश उड़ हो गए। मैंने विनम्र होते हुए कहा-''भले आदमी। कई एग्जाम देने के बाद एक ही काउन्सलिंग में उसका नंबर आया है। यह भी निकल गई तो गजब हो जाएगा। ऐसा करो मुझे साहब से मिलवा दो।'' वह बोला-''अभी तो नहीं है। जब आएँ तब मिल लेना।'' मैंने पूछा-''कब आएँगे।'' वह बोला-''इस बारे में हम क्या कह सकते हैं? वो हमारे साहब हैं, हम उनके साहब थोड़े ही हैं। वैसे वो साहब भी क्या साहब है जो हर समय सीट पर बैठा मिल जाए।''
मैं समझ गया कि मेरा काम अटक चुका है। मैंने हँसते हुए कहा-''काम को इस पुराने तरीके से अटकाने में आपको भी क्या मजा आया होगा जब मुझे अटकवाने में ही नहीं आया।'' उसने पूछा-''क्या मतलब?'' मैंने कहा-''आप लोग काम करने की बजाय काम को अटकवाने के लिए बैठे हैं तो फिर तरीका भी इनोवेटिव होना चाहिए। इसके लिए आप मूल निवास प्रमाण पत्र के लिए आवेदन पत्र का नया परफोरमा बनाइए और उसमें आवेदक से पूछिए 1.नाम 2.पिता का नाम 3.ये कब से आपके पिता हैं। 4. पिछले दस वर्षों में कौन-कौन आपके पिता रहेे? 5. पिछले तीन वर्षों से लगातार पिता का नाम? आदि।'' मेरी बात सुनकर वह खुद हँसते-हँसते लोटपोट हो गया। हँसते हुए उसने अगले दिन आने की तथा एक और सर्पोटिंग डॉक्यूमेन्ट लाने की कारगर सलाह दी।
खैर अगले दिन मुझे मूल निवास प्रमाण पत्र मिल गया लेकिन मैं सोचने लगा कि सतयुग में एक सावित्री हुई थी जो यमराज से अपने पति के प्राण लेकर आ गई थी। उसने एक असम्भव सा काम कर दिखाया था। लेकिन इस कलयुग में उसे अगर यह कहा जाए कि आप कलेक्ट्रेट जाकर अपने बच्चे का मूल निवास प्रमाण पत्र बनवा लाओ तो उसके हाथ-पाँव फूल जाएँगे।
पिछले दिनों अपनी बिटिया का मूल निवास प्रमाण पत्र बनवाने के लिए सुबह ठीक साढ़े दस बजे कलेक्ट्रेट पहुँचा। दिन भर वहाँ के बाबुओं ने मुझे ऐसा चकरधिन किया कि शाम पाँच बजते-बजते तो मैं खुद अपना मूल निवास भूल गया। समस्या यह खड़ी हो गई कि अपना पता याद न रहने पर मैं घर कैसे जाऊँ? मजबूरी में मैंने भूल निवास प्रमाण पत्र के लिए अप्लाई किया तब जाकर घर लौट सका।
सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)

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