Saturday, November 21, 2015

यूथ की गाँधीगिरी; सर्च से रिसर्च तक

यूथ की लाइफ स्टाइल में गांधीजी के जीवन मूल्यों की झलक दिखाने की जोर-शोर से हो रही चर्चा सुनकर मैं अक्सर टेंशन में आ जाता हूँ। सोचने लगता हूँ कि आखिर गड़बड़ कहाँ हो गई है। गाँधी जी के जीवन मूल्यों में या फिर यूथ की लाइफ स्टाइल में?
मेरे साथ कोई सर्किट तो रहता नहीं जो पता लगाकर बताए। इसलिए मैंने खुद ही सोचना शुरु कर दिया। सोचते-सोचते जब मैं किसी भी नतीजे पर नहीं पहुँचा तो मेरे 'माइन्ड' में 'केमिकल लोचा' हो गया।
जो चीज होती ही नहीं है, उसके होने का बोध करने के लिए हमारे यहाँ रिसर्च की जाती है। इसलिए सर्च करने पर भी जब मुझे यूथ की लाइफ स्टाइल में गाँधी जी के जीवन मूल्यों के दर्शन नहीं हुए तो मैंने इस पर रिसर्च शुरु कर दी। शोध करते ही मुझे यह बोध हो गया कि हमारा आज का यूथ गाँधी जी के जीवन मूल्यों का साक्षात 'पाकेट बुक एडीशन' है। अर्थात् अच्छा-सच्चा संक्षिप्त और सारगर्भित गाँधीवादी।
गाँधी जी ने 'देश की आजादी' की लड़ाई लड़ी और हमारा आज का यूथ 'खुद की आजादी' की लड़ाई लड़ रहा है। आजादी के प्रति उसकी ललक ठीक गाँधी जी जैसी ही है। इसलिए भले ही पूरी तरह से ना सही लेकिन खुद के अनुकूल मामलों में तो वह संक्षिप्त गाँधीवादी ही है।
अहिंसा में आज के यूथ की अटूट आस्था है। इसलिए वे ज्यादातर बातें मोबाइल फोन पर ही करना पसंद करते हैं। वह तुनक मिजाजी जो वे मोबाइल फोन पर बतियाते हुए करते हैं अगर आमने-सामने करने लगें तो हिंसा की सम्भावना बढ़ जाएगी। कितनी खूबसूरती से एडजस्ट किया है आज के यूथ ने अहिंसा को अपनी लाइफ स्टाइल में।
मोबाइल फोन पर जब वह किसी दूसरे को मिसकॉल देता है, तो उसे कड़का या कंजूस समझना सरासर गलत है। मिसकॉल के जरिये वह शरारत नहीं अपितु सत्याग्रह करता है। मिसकॉल यानी सामने वाले को एक अत्यन्त विनम्र आग्रह कि सत्य को जानने के लिए मुझे कॉल बैक करो। सत्याग्रह गांधी जी की तकनीक थी और मिस कॉल, गाँधीजी की उस तकनीक को अपनाने के निमित्त हमारे यूथ की मौलिक तकनीक।
गाँधी जी के ड्रेस-सेन्स की खासियत यह थी कि वे यथासम्भव कम से कम कपड़े पहनते थे। हमारा आज का यूथ भी अपने बदन पर ज्यादा कपड़े लादना पसन्द नहीं करता। वह गाँधी जी के ड्रेस-सेन्स का मर्म समझता है, इसलिए कम से कम कपड़ों में काम चलाना अपना धर्म समझता है।
गाँधी जी जीवन विज्ञान को अधिक महत्व देते थे, किताबी ज्ञान को नहीं। उनके इस विचार को स्वीकार करने की वज़ह से वह किताबों को ज्यादा कष्ट नहीं देता, जीवन की अन्य समस्याओं के समाधान के लिए सतत अनुसंधानशील रहता है। अपनी आत्मकथा में गाँधी जी ने अपनी हैंडराइटिंग $खराब होने पर अफसोस व्यक्त किया था। हैंडराइटिंग तो हमारे आज के यूथ की भी अच्छी नहीं है। गाँधी जैसी ही है। लेकिन उस पर अफसोस व्यक्त करने का वक्त और अवसर उसके पास नहीं है।
विभिन्न आन्दोलनों का संचालन एवं नेतृत्व करना गाँधी जी की महानता का परिचायक है। हमारे यूथ ने गाँधी जी की इस खूबी को तगड़े ढंग से ग्रहण किया है। इसलिए वह एडमीशन से लेकर एग्जामिनेशन तक आन्दोलित ही रहता है। अपनी माँगों को लेकर वह तब तक धरना देता है जब तक कि पुलिस उसे उठाकर थाने में धर ना दे।
हाँ, एक बात वह गाँधी जी की नहीं भी मानता। वह यह कि कोई अगर तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल भी आगे कर दो। यहाँ उसका गाँधी जी से क्लीयरकट मतभेद है। वह साफ कहता है कि-
जो तौ कू काँटा बोए, ताइ बोव तू भाला।
वह भी याद रखेगा भइया पड़ा किसी से पाला॥

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


सुरेन्द्र दुबे (जयपुर) की पुस्तक
'डिफरेंट स्ट्रोक'
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Friday, November 20, 2015

महिला दिवस बनाम पुरुष रात्रि

रेल बजट प्रस्तुत करते हुए रेलमंत्री ने कॉलेज में पढने वाली लड़कियों को मुफ्त रेल यात्रा का तोहफा दिया। लड़कियोंं को तो सभी तोहफा देते हैं। यही तोहफा लड़कों को भी मिलना चाहिए। लेकिन महिला सशक्तिकरण तभी तो होगा जब लड़कियों को रेलवे का फ्री पास मिलेगा और लड़कों को किराया देना पड़ेगा। इससे मैं यह समझ पाया कि हमारे यहाँ महिला सशक्तिकरण पुरुष अशक्तिकरण पर निर्भर करता है।
महिला सशक्तिकरण की सरकारी योजनाओं का रिजल्ट यह आया कि मेरे घर में पुरुष निशक्तिकरण का अभियान शुरू हो गया। अपनी ही पत्नी के सामने अब मेरी हालत ठीक वैसी है जैसी कि शेरनी के पिंजरे में बांध दिए गए बकरे की होती है। वह अक्सर मुझे कह देती है कि आप में तो अक्ल नहीं है और मैं सिर झुकाकर कहता हूँ-सही बात है। वैसे ही घर-गिरहस्ती के मामलों मेें महिलाएँ ज्यादा होशियार होती है तथा पुरुष एकदम फिसड्डी। कारण यह है कि घर में घुसते ही पुरुष की हस्ती गिर जाती है, इसलिए घर की व्यवस्था घर गिरहस्ती कही जाती है।
पुरूषों की दुर्दशा पर सोचते-सोचते मुझे नींद आ गई। सपने में मेरी रेलमंत्री से भेंट हुई। मैंने उनसे पूछा कि आपकी सरकार महिलाओं की इतनी हितैषी है तो फिर लोक सभा में महिला आरक्षण का विधेयक क्यों पास नहीं करवा पाई। उन्होंने जवाब दिया देखो इसमेें एक टेक्नीकल अड़चन है। ये बिल पास होने पर लोक सभा और विधान सभाओं की तेंतीस प्रतिशत सीट्स महिलाओं के लिए आरक्षित हो जाएगी। फिर हमें ऐसे ही तेंतीस प्रतिशत सीट्स पुरूषों के लिए भी आरक्षित करनी पड़ेगी। ऐसे में टेक्नीकल प्रॉब्लम ये है कि बची हुई चोंतीस प्रतिशत सीट्स पर जो लोग चुनकर आएंगे, वे क्या कहलाएँगे?
महिला सशक्तिकरण की योजनाओं का सबसे ज्यादा नुकसान मुझे हुआ। क्योंकि मेरी पत्नी जरूरत से ज्यादा सशक्त हो गई। सशक्त होते ही उसका बौद्धिक स्तर पहलवानों के बराबर हो गया। कल ही मुझे उपदेश देते हुए कहने लगी कि ''जब तक आप महाकवि तुलसीदासजी की भाँति पत्नी के प्रति अपने मन में प्यार की भावना नहीं जगाओगे तब तक बड़े कवि नहीं कहलाओगे।'' मैंने कहा कि मैं भी तो पत्नी से खूब प्यार करता हूँ! वह बोली-''खुद की पत्नी से प्यार करो तो जानूँ।''
अपनी कमजोर नस पकड़ में आते देख मैंने भी आक्रामक नीति अपना ली। कहते हैं कि आक्रमण ही सुरक्षा की सर्वश्रेष्ठ तकनीक है। इसलिए मैंने उससे पूछा-''तुम्हेें किसने कहा कि तुलसीदास जी अपनी पत्नी से प्यार करते थे?'' वह बोली-''कौन नहीं जानता कि तुलसीदास जी की पत्नी रूठकर मायके चली गई थी तो वे भी उसको मनाने के लिए पीछे-पीछे चल दिए। पहले तो जान जोखिम डाल कर उफनती हुई नदी को पार किया। रात के अंधेरे में ससुराल पहुँचे तो बालकनी से साँप लटक रहा था। वे उसे रस्सा समझकर उसी के सहारे बालकनी में चढ़ गए। इसे कहते हैं अपनी पत्नी के प्रति सच्चा प्यार।''
मैंने कहा-''री बावली। तुम इस कहानी को ठीक से समझ ही नहीं पाई। वे पत्नी को मनाने नहीं गए होंगे। मना करने गए होंगे। मुझे तो ऐसा लगता है कि उन्होंने साँप को रस्सा समझ कर नहीं, साँप समझकर ही पकड़ा होगा। सोचा होगा कि गुस्साई पत्नी से सामना हो इससे अच्छा है कि उससे पहले साँप ही काट खाए। लेकिन शायद साँप ने भी कह दिया होगा कि मेरे काट खाने से तुम्हारी जान नहीं जाएगी। तुम तो वहीं जाओ। वह ही तुम्हारा दिमाग खाएगी। तब बेचारे तुलसीदास जी क्या करते?''
खैर, महिलाओं के पक्ष में कानूनी प्रावधानों की संख्या इतनी तेजी से बढ़ी जितनी तेजी से तो खुद महिलाओं की संख्या नहीं बढ़ी। आपने राष्ट्रीय महिला आयोग, महिला वर्ष, महिला दिवस के बारे में तो सुना या पढ़ा होगा लेकिन राष्ट्रीय पुरूष आयोग, पुरुष वर्ष, पुरुष दिवस के बारे में कभी कोई चर्चा भी नहीं सुनी होगी। मैं तो सरकार से कहता हूँ कि महिला दिवस की तरह पुरुष का दिवस भले ही मत मनाओ 'पुरुष रात्रि' ही मना लो। लेकिन मेरी बात को सुनने वाला कोई नहीं है क्योंकि लिए समाज के माथे पर कन्या भ्रूणहत्या का कलंक लगा हुआ हो उसमें यह सब तो होना ही है। महिलाओं के लिए आयोग और पुरुषों के लिए अभियोग।
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


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Thursday, November 19, 2015

जाँच रिपोर्ट-तीन

गलती से ही सही लेकिन हमारी सरकार ने एक जोरदार काम किया। उस विमान को बहादुरीपूर्वक बचा लिया, जिसका अपहरण ही नहीं हुआ।
सारी रात हड़कम्प मचा रहा और सुबह यह पता चला कि विमान में अपहरणकर्ताओं का कुछ पता नहीं चला। गलतफहमी में ही अफरातफरी मच गई। बेचारे कमाण्डोज, डॉक्टर्स और फायर ब्रिगेड वाले ही नहीं देश के गृहमंत्री और प्रधानमंत्री तक पूरी रात परेशान रहे।
खैर, मैंने इस समूची घटना की राष्ट्रहित में गम्भीरतापूर्वक जांच करके रिपोर्ट पेश की तो उसे पढ़कर जिस गलतफहमी की वजह से यह घटना घटी उस गलतफहमी तक को गलतफहमी हो गई!
मेरी समूची जांच रिपोर्ट इस प्रकार थी-
देश में कुल मिलाकर ठीक-ठाक हवाई अड्डे तीन- उनमें से भी दो तो बन्द रहते हैं और एक खुलता ही नहीं।
जो हवाई अड्डा खुलता ही नहीं, उस पर हवाई जहाज खड़े तीन- उनमें से भी दो तो खराब और एक उड़ता ही नहीं ।
जो हवाई जहाज उड़ता ही नहीं, उसे नियंत्रित करने वाले कंट्रोल टॉवर तीन- उनमें से भी दो तो फिजूल और एक पर खुद का ही कन्ट्रोल नहीं।
जिस कंट्रोल टॉवर पर खुद का ही कन्ट्रोल नहीं, उस पर तैनात सरकारी अधिकारी भी तीन- उनमें दो तो गायब और एक मिलता ही नहीं।
जो सरकारी अधिकारी मिलता ही नहीं, उसने संदेश भेजे तीन- उनमें से दो तो गलत और एक पहँुचा ही नहीं।
जो संदेश पहँुचा ही नहीं, उसे रिसीव करने वाले पायलट भी तीन- उनमें से भी भी दो तो बहरे और एक सुनता ही नहीं।
 जो पायलट सुनता ही नहीं, उसे दिखे अपहरणकर्ता तीन-  उनमें से भी दो तो अदृश्य और एक के शक्ल ही नहीं।
जिस अपहरणकर्ता के शक्ल ही नहीं, उसे पहचानने वाले पेसेंजर भी तीन-उनमें से भी दो तो बेवकूफ और एक के अक्ल ही नहीं।
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


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Wednesday, November 18, 2015

हाल तबीयत का

बीमार दोस्त की तबीयत का हाल पूछने मैं अस्पताल पहुँचा तो पता चला कि अस्पताल तो खुद बीमार पड़ा हैै। अस्पताल का इन्फेक्शन लग जाने मैं बीमार हो गया। मैंने भी सोच लिया कि चाहे जो हो जाए ऐलोपैथी के डाक्टर्स से तो मैं अपना इलाज नहीं ही करवाऊँगा। क्योंकि जिस पैथी में मेडिसिन ही एक्सपायर हो जाती हो उसमें मरीज बेचारा कैसे बचेगा? लिहाजा मैंने घर पर  रहकर अपनी जीवन लीला आयुर्वेद और होम्योपैथी के चिकित्सकों के हवाले कर दी।
अब मेरे घर पर तबीयत का हाल पूछने वालों का ताँता लग गया। सबसे पहले तो 'तबीयत पूछुओं' के कुछ पेशेवर समूह आए। उनके पास तबीयत पूछने के अलावा और कोई काम होता ही नहीं। वे रात-दिन इसी ताक में रहते हैं कि कोई बीमार पड़े तो वे अपना काम शुरू करें। आते ही बताने लगते हैं कि वे कल किसकी तबीयत पूछने गए थे? उसे क्या बीमारी है? वह ठीक हो सकेगा या नहीं। फिर बताने से भी नही चूकते कि मेरी तबीयत पूछने के बाद उन्हें किस-किस की तबीयत पूछने के लिए जाना है। उन्हें यह बताने का शौक होता है कि जिस रोग से मैं पीडि़त हूँ वह रोग पहले किस किसको अपना शिकार बना चुका है। वे सुनना बिल्कुल नहीं चाहते, सिर्फ बोलना चाहते हैं। लम्बे समय तक बैठे रहकर वे बार-बार बताते हैं कि अब उन्हें अमुक आदमी की तबीअत पूछने जाना है। दरअसल वे तबीअत पूछने का ही काम करते हैं। इस काम में वे पूरी तरह बिजी हैं। जिस दिन कोई बीमार नहीं पड़ा पता नहीं वे क्या करेंगे? कहाँ जाएँगे? मुझे तो लगता है कि बेचारे बेरोजगार हो जाएँगे।
मेरी तबीयत पूछने वालों में दूसरा वर्ग उन लोगों का था जिनसे मेैंने पैसा उधार ले रखे हैं। ऐसे सभी लोग वाकई चिन्तित नजर आए। यह पता करना मुश्किल था कि वे मेरे स्वास्थ्य के लिए चिन्तित थे या अपने इन्वेस्टमेन्ट की रक्षा के लिए। लेकिन वे बेहद चिन्तित थे। आये तो वे लोग भी थे जिनमेंं मैं पैसे माँगता हूँ। वे शायद इस बात की तसल्ली करने आए कि पैसे चुकाने ही पड़ेंगे या वैसे ही काम चल जाएगा?
खैर जितने लोग मेरी तबीयत पूछने आए उन सब में एक बड़ी समानता थी। दरअसल वे सब शायद इलाज के  मामले में  डाक्टर्स के भी पितामह थे। सबके सब उसी बीमारी के स्पेशलिस्ट थे जिससे मैं पीडि़त था। दवाओं के इतने विकल्प तो समूचे चिकित्सा जगत को भी नहीं पता होंगे। जो आता वह मुझे नई और अचूक दवा बता जाता। एक बोला-''यह दवा लो, शाम तक ठीक हो जाओगे।'' मैंने कहा ठीक है ले लूँगा। आप ऐसा करना कि वो चिकित्सक जी अभी मुझे देखने आ रहे हैं उसे कह देना कि वह सिर्फ मेरी तबीयत पूछकर चले जाएँ। दरअसल हमारे यहाँ जिसका जो रोल है वह उसे नहीं करना चाहता। हर कोई किसी दूसरे के रोल पर एन्क्रोचमेंट करना चाहता है।
मेरी तबीयत पूछने वालों में कुछ तो इतने खतरनाक शुभचिन्तक थे कि मेरी बीमारी की मारक क्षमता को महिमा मंडित करने लगे। कहते फलां-फलां को यहीं बीमारी हुई थी। ये बीमारी तो आज भी जिन्दा है लेेकिन उनमेेें से कोई भी नहीं बचा जिन्हें ये हुई थी। ऐसे लोगों ने डरा-डरा कर मुझे बीमार पटके रखा। मैं उन सबसे परेशान हो गया। उनकी बातें सुन-सुनकर मुझे एग्जर्सन हो जाता था। लेकिन मैंं भी यह सोचने लगता कि अगर ये मेेरी तबीअत पूछने नहीं आते तो मुझे ज्यादा परेशानी होती यह सोचकर कि मेरे होने का कोई महत्व भी है कि नहीं।
एक दिन बिस्तर पर लेटे-लेटे मुझे उस दोस्त की याद आई जिसकी तबीयत का हाल जानने के लिए मैं अस्पताल गया था और खुद बीमार पड़ गया था। मैंने अस्पताल में फोन करके कहा-फलां वार्ड के बत्तीस नंबर बेड के पेशन्ट से बात कराओ। जवाब मिला कि पेशन्ट तो नहीं है। मैंने पूछा-कहाँ गया है? जवाब मिला-ऑपरेशन थिएटर में। मैेंने पूछा-कब आएगा? जवाब मिला-आएगा या नहीं आएगा या कब आएगा मैं कैसे बता सकता हूँ?
मैंने सोचा कि हम सचमुच बहुत तरक्की कर रहे हैं। पहले कुत्ते की मौत मरते थे, अब अस्पताल की मौत मर रहे हैं। और जो अपने घर पर रहकर इलाज कराएँगे उनमें से कुछ तबीयत पूछने वालों के हत्थे चढ़ जाएंगे।
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


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Monday, November 16, 2015

घर-घर में कश्मीर

वैसे प्रॉब्लम और गर्लफ्रेण्ड में कोई खास फर्क नहीं होता। गर्लफ्रेण्ड खुद अपने आप मेें एक प्रॉब्लम होती है जो अपने आप बॉयफ्रेण्ड के गले पड़ी रहती है। प्रॉब्लम भी गर्लफ्रेण्ड की तरह हर पल आपके आस-पास मौजूद रहकर नया टेंशन क्रिएट करती रहती है।
मेरी भी एक गर्लफ्रेण्ड है- मिस अनछुई। उसका अफेयर तो मेरे साथ चला लेकिन शादी किसी और के साथ हो गई। शादी के बाद वे मेरे बराबर वाले मकान में आकर रहने लगे। प्रेम से रहना उसके बस की बात थी नहीं, सो वे आपस में झगड़े बिना रह ही नहीं सकते थे। एक रात चिल्लाने की आवाजें सुनकर मैं अचानक जागा तो पता चला कि वे गाली-गलौच में राष्ट्रीय स्तर की शब्दावली पर उतर आए हैं। मैं इस स्थिति का चुपचाप मजा लेता रहा। मौका दर मौका उनकी गृहस्थी को बाहर से समर्थन भी देता रहा।
मेरे और उनके घर के बीच एक दुबली-पतली अधबनी दीवार है। इस दीवार को बनते और मिटते हुए सभी ने अनेक बार देखा है। पड़ौसियों की राय में वही नियंत्रण रेखा है।
मेरी भलमनसाहत की असलियत जब उसके हजबेण्ड की समझ में आई तो वह बहुत भन्नाया। इसके अलावा वह और कर भी क्या सकता था। पहले तो उसने मुझे चेताया लेकिन जब मैं नहीं माना वह झल्लाया। एक दिन उसने मोहल्ले के जिम्मेदार लोगों के सामने मेरी एक्टीविटीज को 'क्रॉस बॉर्डर टेरेरिज्म' बताया।
एक दिन पति-पत्नी में लड़ाई छिड़ गई। बढ़ते-बढ़ते बात इतनी बढ़ गई कि शोर-शराबे को सुनकर घर के बाहर भीड़ जमा हो गई। पड़ौसियों की मौजूदगी में पति ने पत्नी से कहा कि आज से लड़ाई बन्द कर दो। इसी में हम दोनों की भलाई है। अब मैं तुम्हारी बातों और हरकतों पर रिएक्ट नहीं करुँगा। अगले एक सप्ताह तक अपनी इस घोषणा पर कायम रहूँगा। उस क्राइसिस में ऐसा प्रपोजल देना सचमुच बहादुरी भरा काम था। बाद में पता चला कि कूटनीति की भाषा में यह पति द्वारा किया गया एक तरफा संघर्ष विराम था।
जब उस एक तरफा संघर्ष विराम का कोई खास नतीजा नहीं आया तो पति ने पत्नी से कहा कि बातचीत के लिए टेबल पर आओ। पत्नी बोली कि मैं बातचीत के लिए तब ही टेबल पर आ सकूंगी जब तुम मेरे प्रेमी को भी बातचीत मेें शामिल करो, अर्थात् वार्ता को त्रिपक्षी बनाओ।
बेचारा-बेसहारा पति जो हर कीमत पर अपने घर में शान्ति चाहता था, यह शर्त कैसे मानता? ऐसा लगने लगा कि अचानक दिखाई देने वाला रास्ता दुर्गम पहाड़ी दर्रोंं में कहीं खो गया है। एक खुशहाल मोहल्ले में उसके घर का हाल कश्मीर समस्या जैसा हो गया। ताजा समाचार यह है कि शान्ति की कब्र पर अशान्ति का परचम फहरा रहा है। उनसठ वर्षों में लोग कश्मीर में जाकर घर तो नहीं बना सके हैं लेकिन घर-घर में कश्मीर अब दबे पाँव चला आ रहा है।
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


सुरेन्द्र दुबे (जयपुर) की पुस्तक
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Saturday, November 14, 2015

बीमारियों का पैकेज दिल

 अमरिकन और यूरोपीयन कम्पनीज से कम से कम एक गुण तो सीखने लायक है। दरअसल वे बीमारी का नाम, इन्वेस्टीगेशन के इन्स्ट्रूमेंट्स और मेडिसिन्स को एक साथ बेचते हैं। बीमारी के नाम से पैकेज डील बनाते हैं। हमारे मंत्रीजी कुछ न कुछ करने की नई-नई बेताबी के साथ विदेश जाते हैं और नई-नई बीमारी का इलाज खरीद लाते हैं, भलेे ही वह बीमारी यहाँ हो ही नहीं।
एक रात सपने मे मैं स्वास्थ्य मंत्री बना तो ऐेसे ही एक नई-नई अंजान बीमारी का इलाज खरीद लाया। आने पर लोगों ने  कहा कि इस बीमारी का नाम तो हमने सुना ही नहीं तो मैंने भी झट कह दिया कि अब अगले कुछ वर्षों तक तुम सिर्फ इसी बीमारी का नाम सुनोगे और तब तक सुनते रहोगे जब तक कि वे हमें बेचने के लिए किसी नई बीमारी और उसके इलाज का एलान नहीं कर देतेे।
वे बेच कर खुश और हम खरीद कर। बीमारियों की इस बीमार खरीद फरोख्त ने विश्व में एक बीमार भाईचारे को जन्म दिया। शामत तो आफिसर्स की आ जाती है। वे उस बीमारी को यहाँ खोजने में जुट जाते हैं। अगर वह बीमारी नहीं भी मिलती तो उससे मिलती-जुलती बीमारी खोज लाते हैं। अगर मिलती जुलती बीमारी भी नहीं मिलती तो फिर वे किसी भी उपलब्ध बीमारी के इलाज में उन उपकरणों और दवाओं को झोंक देते हैं। आखिर बजट का कन्जमशन भी तो आपको लायक सिद्ध करता है।
सबसे बुरी हालत तो डाक्टर्स की है। वे एक बीमारी के इलाज में महारथ हासिल करने की कोशिश कर ही रहे होते है कि  नई आयातित बीमारी उनके गले की फाँस बन जाती है। मुझे तो लगता है कि नई-नई आयातित बीमारियों ने उनकी नजर, दिमाग और रवैये को ही बीमार कर दिया है।
पिछले दिनों मैं एक डाक्टर के पास गया। मैंने अपना परिचय देते हुए उसे बताया कि मैं कवि हूँ। इतना सुनते ही उसने मुझे तपाक से पूछ लिया कि आप कब से कवि हैं? यानी ये बीमारी आपको कब से हैं? मैंने पूछा-क्या मतलब? उसने कहा-यानी आपकी उम्र कितनी है? मैंने जवाब दिया-अड़तालीस साल। बीमारी बहुत पुरानी है। पहले कभी कहीं इसका इलाज करवाया? मैंने जवाब दिया नहीं। उसने कहा-तब तो ये बीमारी लाइलाज हो चुकी है। जाओ और बहरों के मोहल्ले में रहनेे लग जाओ। बस यही इलाज है। ऐसा करने के बावजूद ये बीमारी पूरी तरह ठीक तो नहीं होगी लेकिन और ज्यादा बढ़ेगी भी नहीं।
खैर, उनसे मिलकर लौटते हुए मुझे लगा कि देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए एक काम तो हम कर ही सकते हैं। वह यह कि हम नई-नई बीमारियों की ऐलोपैथी में खोज करके विदेशी कम्पनीज को बेच दें। बाद में वे उसका उपचार ढूँढे। जाँच के उपकरण विकसित करें तथा इलाज के लिए दवा बनाकर सारी दुनिया में बेच दें। उनकी भी कमाई और अपनी भी  कमाई।
यह दिव्य-विचार आते ही मैंने पाँच-सात बीमारियाँ तो आनन-फानन में ढूँढ निकाली। अब उनके अंग्रेजी नाम रखने की देर है। नाम में अगर एंजीटाइटिस, इन्फ्लेमेशन, मीनिया, सिन्ड्रोम जैसे शब्द जोड़ दो तो और भी अच्छा। जो बीमारियाँ मैंने खोजी उनके बारे में बताता हूँ।
सबसे पहली और बड़ी बीमारी है एज्हसटाइटिस। एज्हस का फुलफार्म है- ए जे एच एस यानी अपने आपको ज्यादा होशियार समझना। बीमारी नहीं ये तो महामारी है। हर कोई इसका शिकार है। दूसरी बीमारी है बीसीडी मीनिया। बीसीडी यानी अपनी हैसियत को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाना। ये बीमारी महिलाओं में ज्यादा पाई जाती है। तीसरी बीमारी आजकल के युवाओं की  है। बीमारी का नाम है बीएसएच बीएसजेड। यानी बाहर से हीरो भीतर से जीरो।
सभी बीमारियों की खासियत यह होती है कि आप किसी को भी बीमारी के सिमटम्स बताते हैं तो सुनने वाले को लगता है कि यह बीमारी उसको खुद को भी है। आप भी ऐसी बीमारियों पर मेरी तरह रिसर्च करके विदेशी कम्पनियों को बेच दीजिए। फिर देखते हैं कि रुपए के मुकाबले डालर कितनी देर टिकता है?
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


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