Wednesday, November 18, 2015

हाल तबीयत का

बीमार दोस्त की तबीयत का हाल पूछने मैं अस्पताल पहुँचा तो पता चला कि अस्पताल तो खुद बीमार पड़ा हैै। अस्पताल का इन्फेक्शन लग जाने मैं बीमार हो गया। मैंने भी सोच लिया कि चाहे जो हो जाए ऐलोपैथी के डाक्टर्स से तो मैं अपना इलाज नहीं ही करवाऊँगा। क्योंकि जिस पैथी में मेडिसिन ही एक्सपायर हो जाती हो उसमें मरीज बेचारा कैसे बचेगा? लिहाजा मैंने घर पर  रहकर अपनी जीवन लीला आयुर्वेद और होम्योपैथी के चिकित्सकों के हवाले कर दी।
अब मेरे घर पर तबीयत का हाल पूछने वालों का ताँता लग गया। सबसे पहले तो 'तबीयत पूछुओं' के कुछ पेशेवर समूह आए। उनके पास तबीयत पूछने के अलावा और कोई काम होता ही नहीं। वे रात-दिन इसी ताक में रहते हैं कि कोई बीमार पड़े तो वे अपना काम शुरू करें। आते ही बताने लगते हैं कि वे कल किसकी तबीयत पूछने गए थे? उसे क्या बीमारी है? वह ठीक हो सकेगा या नहीं। फिर बताने से भी नही चूकते कि मेरी तबीयत पूछने के बाद उन्हें किस-किस की तबीयत पूछने के लिए जाना है। उन्हें यह बताने का शौक होता है कि जिस रोग से मैं पीडि़त हूँ वह रोग पहले किस किसको अपना शिकार बना चुका है। वे सुनना बिल्कुल नहीं चाहते, सिर्फ बोलना चाहते हैं। लम्बे समय तक बैठे रहकर वे बार-बार बताते हैं कि अब उन्हें अमुक आदमी की तबीअत पूछने जाना है। दरअसल वे तबीअत पूछने का ही काम करते हैं। इस काम में वे पूरी तरह बिजी हैं। जिस दिन कोई बीमार नहीं पड़ा पता नहीं वे क्या करेंगे? कहाँ जाएँगे? मुझे तो लगता है कि बेचारे बेरोजगार हो जाएँगे।
मेरी तबीयत पूछने वालों में दूसरा वर्ग उन लोगों का था जिनसे मेैंने पैसा उधार ले रखे हैं। ऐसे सभी लोग वाकई चिन्तित नजर आए। यह पता करना मुश्किल था कि वे मेरे स्वास्थ्य के लिए चिन्तित थे या अपने इन्वेस्टमेन्ट की रक्षा के लिए। लेकिन वे बेहद चिन्तित थे। आये तो वे लोग भी थे जिनमेंं मैं पैसे माँगता हूँ। वे शायद इस बात की तसल्ली करने आए कि पैसे चुकाने ही पड़ेंगे या वैसे ही काम चल जाएगा?
खैर जितने लोग मेरी तबीयत पूछने आए उन सब में एक बड़ी समानता थी। दरअसल वे सब शायद इलाज के  मामले में  डाक्टर्स के भी पितामह थे। सबके सब उसी बीमारी के स्पेशलिस्ट थे जिससे मैं पीडि़त था। दवाओं के इतने विकल्प तो समूचे चिकित्सा जगत को भी नहीं पता होंगे। जो आता वह मुझे नई और अचूक दवा बता जाता। एक बोला-''यह दवा लो, शाम तक ठीक हो जाओगे।'' मैंने कहा ठीक है ले लूँगा। आप ऐसा करना कि वो चिकित्सक जी अभी मुझे देखने आ रहे हैं उसे कह देना कि वह सिर्फ मेरी तबीयत पूछकर चले जाएँ। दरअसल हमारे यहाँ जिसका जो रोल है वह उसे नहीं करना चाहता। हर कोई किसी दूसरे के रोल पर एन्क्रोचमेंट करना चाहता है।
मेरी तबीयत पूछने वालों में कुछ तो इतने खतरनाक शुभचिन्तक थे कि मेरी बीमारी की मारक क्षमता को महिमा मंडित करने लगे। कहते फलां-फलां को यहीं बीमारी हुई थी। ये बीमारी तो आज भी जिन्दा है लेेकिन उनमेेें से कोई भी नहीं बचा जिन्हें ये हुई थी। ऐसे लोगों ने डरा-डरा कर मुझे बीमार पटके रखा। मैं उन सबसे परेशान हो गया। उनकी बातें सुन-सुनकर मुझे एग्जर्सन हो जाता था। लेकिन मैंं भी यह सोचने लगता कि अगर ये मेेरी तबीअत पूछने नहीं आते तो मुझे ज्यादा परेशानी होती यह सोचकर कि मेरे होने का कोई महत्व भी है कि नहीं।
एक दिन बिस्तर पर लेटे-लेटे मुझे उस दोस्त की याद आई जिसकी तबीयत का हाल जानने के लिए मैं अस्पताल गया था और खुद बीमार पड़ गया था। मैंने अस्पताल में फोन करके कहा-फलां वार्ड के बत्तीस नंबर बेड के पेशन्ट से बात कराओ। जवाब मिला कि पेशन्ट तो नहीं है। मैंने पूछा-कहाँ गया है? जवाब मिला-ऑपरेशन थिएटर में। मैेंने पूछा-कब आएगा? जवाब मिला-आएगा या नहीं आएगा या कब आएगा मैं कैसे बता सकता हूँ?
मैंने सोचा कि हम सचमुच बहुत तरक्की कर रहे हैं। पहले कुत्ते की मौत मरते थे, अब अस्पताल की मौत मर रहे हैं। और जो अपने घर पर रहकर इलाज कराएँगे उनमें से कुछ तबीयत पूछने वालों के हत्थे चढ़ जाएंगे।
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


सुरेन्द्र दुबे (जयपुर) की पुस्तक
'डिफरेंट स्ट्रोक'
में प्रकाशित व्यंग्य लेख

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