Wednesday, September 30, 2015

महिमा ब्लू लाइन की

दिल्ली और राजस्थान की ब्लू लाइन बसों में बहुत फर्क है। दिल्ली की ब्लू लाइन बस अगर चल देती है तो रुकने का नाम नहीं लेती और राजस्थान की ब्लू लाइन बस अगर रुक जाती है तो चलने का नाम ही नहीं लेती। वहाँ की ब्लू लाइन किलोमीटर के हिसाब से दौड़ती है और यहाँ की ब्लू लाइन सेन्टीमीटर के हिसाब से सरकती है। दिल्ली की ब्लू लाइन किसी के भी टक्कर मार देती है और राजस्थान की ब्लू लाइन के कोई भी टक्कर मार देता है। वहाँ वह सबको ओवरटेक करती है और यहाँ साइकिल तक उसे ओवरटेक कर देती है। वह एक्सीडेन्ट करती रहती है और इसके साथ एक्सीडेन्ट होते रहते हैं।
कवि सम्मेलन में पहुँचने के लिए मुझे सरकारी बस से जाना था। सवारियों से लदी सरकारी बस में अभी मैं घुसा ही था कि ड्राइवर ने आवाज लगाई-''जिन यात्रियों ने टिकट नहीं लिया हो पहले वे बुकिंग विन्डो से टिकट ले आएँ क्योंकि बस में कन्डक्टर नहीं है।'' ड्राइवर का ऐलान सुनते ही मैं चौंका। मैंने सोचा कि पता नहीं इस बस में कन्डक्टर के अलावा और क्या-क्या नहीं है? इसलिए मैं घबराकर तुरंत उस बस से नीचे उतर गया।
हड़बड़ाहट में मैं उसी रुट की दूसरी बस में सवार हुआ तो इस बार कन्डक्टर की आवाज आई-''जिन यात्रियों को वाकई जाना है, उन्हें उतरकर बारी-बारी धक्का लगाना है क्योंकि इस बस में ड्राइवर नहीं है।'' घबराकर मैं उसमें से भी उतर गया। तभी मेरी नजर उसी रुट की एक अन्य बस पर पड़ी जो एक पेड़ की छाया में शान्तिपूर्वक खड़ी थी। उस खाली खड़ी बस में ड्राइवर और कन्डक्टर हमारे नेताओं की तरह गहरी नींद में सो रहे थे।
उस बस के पास खड़ा-खड़ा मैं सोचने लगा कि हमारी परिवहन व्यवस्था भी कमाल हैं। जिस बस में ड्राइवर है उसमें कन्डक्टर नहीं है। जिस बस में कन्डक्टर है उसमें ड्राइवर नहीं है। और जिस बस में ड्राइवर-कन्डक्टर दोनों हैं, उसमें पेसेन्जर नहीं है। जानकारी करने पर मैंने पाया कि जिस बस में ड्राइवर,कन्डक्टर और पेसेन्जर हैं उसमें डीजल नहीं है। जिस बस में डीजल है वह पंचर पड़ी है। स्टेण्ड पर बेबस खड़ी है। बेचारी जा ही नहीं सकती हमारे प्यारे लोकतंत्र में लोक की तकलीफें तंत्र की समझ में कभी आ ही नहीं सकती।
अन्तत: मैं एक बस में किसी तरह ठँसा। बैठते ही मैंने यात्रियों से पूछा-''अमुक गांव तक जाने में यह बस कितना समय लेती है?'' यात्रियों ने बताया-आप समय की मत पूछिए बस पहुँचा देती है। दरअसल उधर की रोड़ खराब है। बस जैसे-तैसे पहुँच जाएगी। खैर बस चली तो सही लेकिन शहर में ही रुक गई। बेचारी एक जगह खड़ी हो गई। धर्र... धर्र... कर रोने लगी सड़क पर जाम लगा हुआ था। जाम खुला तो आगे चलकर रेल्वे क्रासिंग पर फाटक बन्द हो गया। फाटक खुला और बस आगे बढ़ी तो आगे लोगों ने चक्का जाम कर रखा था।
कदम-कदम पर अव्यवस्था से उपजी तकलीफों के शिकार हम लोग हर हाल में जाने को आतुर हैं। कभी पहले टिकट पाने के लिए लाइन तोड़ रहे हैं तो कभी सीट पाने के लिए आपस में एक-दूसरे का सिर फोड़ रहे हैं। गाली-गलोज से लेकर हाथापाई तक के सारे हथकन्डे हमारी शान हैं। सचमुच हमारी व्यवस्था कितनी महान है। जो निदेशालय में बैठकर इन्हें चलवाते हैं वे कभी इन बसों में नहीं जाते हैं। सोचते हैं भीड़-भाड़ में जाएँ इससे तो अच्छा है कि भीड़-भाड़ में जाए। सरकार ने कार दे रखी है, अपने परिवार को उसी सरकारी कार में घुमाएँगे।
टोटली मिस मैंनेजमेंट की शिकार हमारी व्यवस्था में सब कुछ है बस समय पर सुरक्षित पहुंँचाने की गारण्टी नहीं है। इसीलिए प्रत्येक बस में लिखवा दिया है कि ईश्वर आपकी यात्रा सफल करे। सरकार ने शायद यहाँ मैंनेजमेंट का एक नया तरीका निकाल रखा है। सुरक्षा गायों को सौंप रखी है और दूध देने का जिम्मा कुत्तों पर डाल रखा है।
सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)

सुरेन्द्र दुबे (जयपुर) की प्रकाशित पुस्तक
'डिफरेंट स्ट्रोक'
में प्रकाशित व्यंग्य लेख

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मोटापा जिन्दाबाद

अजगर की हस्ती, भैंसे की सुस्ती और मगरमच्छ की मस्ती अगर एक ही जगह देखनी हो तो आप मेरे जैसे किसी मोटे के दर्शन कर सकते हैं। आपको मनवांछित फल प्राप्त होगा। मोटे लोग अक्सर मस्त किस्म के जीव होते हैंं। वे जिस मोटापे से परेशान रहते हैं उसी का भरपूर आनंद भी उठाते हैं। यह दुर्लभ गुण आपको दुबले-पतले मच्छरनुमा छीजू लोगों मेें प्राय: नहीं मिलेगा।
अपने मोटापे से तंग आकर मैंने प्राकृतिक चिकित्सालय की शरण ली। वहाँ अनेक वरिष्ठ मोटों की संगत में रहकर मुझे अपना वजन घटाना था। कुछ सम्पूर्ण मोटे तो कुछ तोन्दू मोटे। मैं एक आकस्मिक मोटा, उनके नाना प्रकार के रूपों से परिचित हुआ। कुछ मोटे तो इतने मोटे हैं कि मुझे उनके साथ रहने मात्र से 'स्लिम' होने का बोध प्राप्त होता रहता है। यही वजह है कि मैं लम्बे समय तक उपचार लेने के मूड में हूँ। मोटे-मोटियों के उस जमघट में मेरा मोटापा अक्सर शर्मसार रहता है।
मोटे लोगों की मस्ती और हस्ती बेमिसाल होती है। अपने मोटापे से त्रस्त एक मस्त मोटे ने मुझे मोटापे के लाभ गिनाए। पहला तो यह कि किसी भी मोटे का कभी भी बुढ़ापा नहीं आता है क्योंकि बेचारा जवानी में ही मर जाता है। दूसरा यह कि मोटे लोगों के घर पर चोरी होने की सम्भावना कम रहती है क्योंकि उन्हें गहरी नींद आती ही नहीं। तीसरा लाभ यह कि मोटे लोगों के बेडोल शरीर पर नए फैशन के महँगे कपड़े बड़े भद्दे लगते हैं अत: उन्हें मजबूरी में साधारण किस्म के कपड़े पहनने पड़ते हैं। इससे उनकी आर्थिक स्थिति ठीक रहती है। मोटापे का चौथा फायदा यह है कि वे अक्सर घर पर ही पड़े रहना पसन्द करते हैं इसलिए बाहर कम निकलते हैं। गाड़ी कम चलानी पड़ती है। इससे पेट्रोल की बचत होती है तथा प्रदूषण भी कम फैलता है। इस प्रकार विदेशी मुद्रा की बचत में वे देश की अर्थव्यवस्था में अपना अमूल्य योगदान देते रहते हैं। इसलिए राष्ट्र की प्रगति में मोटे लोगों का बड़ा महत्वपूर्ण योगदान है। इतना कहते-कहते वह खुद ठहाका लगाकर हँसने लगा। फिर कुछ रुककर बोला इसीलिए हमारा नारा है-'मोटापा जिन्दाबाद।'
मैंने उससे पूछा कि जब मोटापे के इतने फायदे है तथा मोटापे में महानता का निवास है तब आप पतला होने के लिए इतने प्रयास क्यों कर रहे हैं? जवाब में वह कहने लगा कि यद्यपि मोटोपे के बहुत लाभ है लेकिन त्याग भी तो कोई चीज है। त्याग करने वालों की महिमा और भी बड़ी है इसलिए साधु-सन्तों के उपदेशों पर अमल करते हुए मैं अपने मोटापे का त्याग करने पर आमादा हूँ। उसका तर्क सुनकर मैं भी हंँसे बिना नहीं रह सका। मैं सोचने लगा कि हम हिन्दुस्तानियों के पास और कुछ भी हो न हो लेकिन हर बात का माकूल जवाब जरूर होता है।
एक मोटे ने उपचार से लाभ न होने की शिकायत की। मैंने पूछा कि क्या खाते-पीते हो? वह बोला कि सुबह उठते ही तीन चाय, फिर थोड़ी देर बाद चार पराठों का नाश्ता, दोपहर में लंच करके सो जाता हूँ। तीसरे पहर में उठतेे समय कम से कम दो चाय तो पीनी ही पड़ती है। चाय के साथ बिस्किट-नमकीन तो होते ही हैं। फिर दोस्तों से मिलने निकल जाता हूँ। अच्छे दोस्त अच्छा ही खिलाते हैं तो कुछ खा लेता हूँ। मनुहार तो रखनी ही पड़ती है। रात को डिनर करके सो जाता हूँ। बस इससे ज्यादा कुछ भी नहीं खाता। आजकल डाइटिंंग पर हूँ इसलिए। मैंने पूछा कि डॉक्टर ने क्या ये खुराक बताई है? वह बोला-हाँ, इन सब के अलावा वह तो खाता ही हूँ। लेकिन उसे मेडिसिन मानकर खाता हूँ। वह खाने की श्रेणी में नहीं आती। मैंने कहा दोस्त! इसी तरह खाते-पीते रहो। काम के नाम पर सिर्फ आराम करो। मोटापा कायम रहेगा। सारे रोग तुम्हारा आभार मानेंगे क्योंकि अगर मोटापा नहीं रहता तो बेचारे रोग बेघर नहीं हो जाएँगे?


सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)

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Monday, September 28, 2015

जब मैंने अम्पायरिंग की

अगर बेईमानी करने के लिए ही अम्पायर बनाना हो तो फिर मैं कहाँ किसी से कम हूँ। बकनर ने तो बाद में बेईमानी सीखी होगी, मैं तो जन्मजात बेईमान हूँ। शराबियों की भाषा में कहें तो नीट बेईमान। पता नहीं अब तक आईसीसी की नजर मुझ जैसे काबिल बेईमान पर क्यों नहीं पड़ी? नर तो मैं हूँ ही। बक-बक करने की आदत भी है। फिर मैं कहाँ किसी बकनर से कम हूँ। समझाने पर यह बात आईसीसी की समझ में भी आ सकती है। क्योंकि वह चाहे तो किसी अन्धे को भी अम्पायर बना सकती है। आईसीसी मेहरबान तो बकनर पहलवान।
अम्पायरिंग के भविष्य को रोशन करने की मैंने भी बहुत कोशिशें की, भले ही क्रिकेट का भविष्य अंधेरे में क्यों न चला जाए।
 अम्पायरिंग में आदमी का कैरियर होता ही शानदार है। मैच में कोई जीते-हारे, अम्पायर पर फर्क नहीं पड़ता। छोटे से छोटा और नए से नया अम्पायर बड़े से बड़े खिलाड़ी को हड़का सकता है लेकिन बड़े से बड़ा खिलाड़ी छोटे से छोटे अम्पायर को हड़का नहीं सकता। खिलाड़ी तो चोटिल होकर अनफिट हो सकता है लेकिन अम्पायर के केस में ऐसा कभी नहीं होता। टीवी पर भी मैच के दौरान अम्पायर को किसी भी खिलाड़ी की तुलना में ज्यादा दिखाया जाता है। टीवी चैनल्स की भाषा में कहूँ तो अम्पायर की टी.आ.पी. किसी भी खिलाड़ी की तुलना में हाई होती है। अगर आपको किसी क्रिकेटर को आशीर्वाद देना हो तो यों कहें-''भगवान तुझे अम्पायर बनाए। जिसे आईसीसी के सिवा कोई हिला नहीं पाए। भलेे ही क्रिकेट की नींव हिल जाए।''
आखिरकार सिडनी में अम्पायर आउट हो गया। क्रिकेट के इतिहास में ऐसा दूसरी बार हुआ। पहली बार तब हुआ जब अपने मोहल्ले की क्रिकेट में मैंने अपने अम्पायरिंग के कैरियर का आगाज किया। अम्पायरिंग में मेरा कैरियर कुल मिलाकर एक ओवर लम्बा चला क्योंकि क्रिकेट में बेबी ओवर फेंकने की व्यवस्था तो है, बेबी अम्पायरिंग की व्यवस्था नहीं है। फिर अपने ही मोहल्ले की क्रिकेट में अम्पायरिंग करना हँसी खेल नहीं है। किराने वाले को आऊट दे दो तो अगले ही दिन से उधार मिलना बन्द। कपड़े प्रेस करने वाले को आउट दे दो तो अगले ही दिन वह आपके नए सूट में छेद कर सकता है। दूध वाले को आउट दे दो तो वह दूध में पानी की जगह पानी में दूध मिलाने लगे। बाल काटने वाले को आउट दे दो तो वह बाल की जगह आपका गाल काट दे। कुल मिलाकर अपने मोहल्ले की क्रिकेट में अम्पायरिंग के साइड इफेक्ट्स बेहद खतरनाक हैं।
खैर, मैं पूरी हिम्मत के साथ मैदान में अम्पायरिंग करने के लिए उतरा। जिसका डर था वही हुआ। मेरी गली के कप्तान ने टास जीतकर बैटिंग करने का फैसला किया और ओपनिंग बेट्समैन के रूप में मेरा साला बैटिंग करने के लिए मुझसे गार्ड ले रहा था। साला बेट्स मैन और जीजा अम्पायर। पहली ही गेंद पर एल बी डब्ल्यू की जोरदार अपील हुई। मैं टस से मस न हुआ। दूसरी गेंद उसके बल्ले का किनारा लेते हुए विकेटकीपर के दस्तानों में समा गई। फिर मैंने अपील को नकार दिया। तीसरी गेंद पर विकेट कीपर ने उसे स्टम्प आउट कर दिया। लेग अम्पायर ने उस पर ध्यान नहीं दिया। मेरी मुश्किलें बढ़ती जा रही थी। दर्शक दीर्घा में बैठी हुई मेरी पत्नी बैनर की जगह बेलन हिला रही थी। चौथी गेंद वाइड थी पर मैंने उसे वाइड घोषित नहीं किया। पाँचवी गेंद पर वह हिट विकेट हुआ तो मैंने उसे नो बॉल डिक्लेयर किया।
अगली गेंद पर बेट्समैन बीट हुआ। अब आखिरी गेंद बची थी। उस ओवर की नहीं, मेरे अम्पायरिंग के कैरियर की। बॉलर ने उसे क्लीन बोल्ड कर दिया। फील्डिंग करने वाली टीम ने शोर मचाया ''हाऊ इज ही।'' बॉलर ने पूछा ''एनी डाउट?'' मैंने खुद की तरफ उंगली उठाते हुए कहा अम्पायर आउट। मैंने तो क्रिकेट के हित में रिटायरमेंट ले लिया लेकिन क्या सिडनी टेस्ट के अम्पायर क्रिकेट के हित में ऐसा नहीं कर सकते?

सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)

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Sunday, September 27, 2015

सड़क सुरक्षा सप्ताह


विकसित देशों में ट्रैफिक होता है। हमारे यहाँ ट्रैफिक नहीं होता, ट्रैफिक की जगह हमारे यहाँ पर जो होता है वह बड़ा 'टेरेफिक' होता है। मैं तो इतना सेफ होकर चलता हूँ कि कार भी हैलमेट पहन कर ही चलाता हूँ। एक्सीडेन्ट से मुझे उतना डर नहीं लगता जितना कि मैं ट्रैफिक के सिपाही से डरता हूँ । पता नहीं कब चालान ठोक दे, यह कहते हुए कि आज से कार-ड्राइवर के लिए भी हैलमेट कम्पलसरी कर दिया है।
मैंने जेब्रा क्रासिंग पर कार रोक दी। साइड वाली सीट पर बैठे हुए मेरे मित्र ने महाभारत के अर्जुन वाले अन्दाज में कहा-''मित्र रथ को आगे बढाओ।'' मैंने कहा-''वत्स! रेड लाइट हो रही है। ग्रीन लाइट होने तक हमें यहीं प्रतीक्षा करनी पड़ेगी क्योंकि सामने पुलिसमैन का वेश धारण करके विदुर जी खड़े हैं। वे बड़े ईमानदार हैं। चालान ठोककर ही मानेंगे।''
मैं उसे समझा ही रहा था कि इतने में बाइक पर सवार दो युवक रेड लाइट और विदुरजी दोनों को एक साथ धता बताते हुए निकल गए।
उसने पूछा-''ये कौन हैं?''
मैंने कहा-''अरे वत्स! क्या तुम इन्हें नहीं पहचानते? ये बाइक सवार दुर्योधन है। इसके पीछे जो विराजमान है वह राजकुमार दुशासन है। इनके पिता धृतराष्ट्रजी राज्य सरकार में मंत्री हैं इसलिए ही तो ये कानून को नहीं मानते हैं। विदुर जी का अनादर करना तो इनका जन्म सिद्ध अधिकार है।''
तभी हमारी नजर चौराहे पर टँगे हुए बैनर पर पड़ी। मित्र ने कहा-''शायद 'सड़क सुरक्षा सप्ताह' चल रहा है। इस सप्ताह सड़कों की सुरक्षा की जानी चाहिए। तुम अपने आसपास की सड़कों पर किसी को गड्डा मत खोदने देना। गुटका खाकर सड़क पर पीकोत्सर्जन भी नहीं करना है। सड़क के किनारे वे कार्य भी नहीं करने हैं जो कि वहाँ नहीं किए जाने चाहिए क्योंंकि इस सप्ताह सड़कों की सुरक्षा सुनिश्चित करना हमारा कर्तव्य है।''
मैंने कहा-''वत्स! ये सड़क सुरक्षा सप्ताह ट्रैफिक के नियमों का पालन करने के लिए हैं ताकि सड़क पर चलने वालों की जान बचाई जा सके।''
वह बोला-''नाम से तो लगता है कि सड़कों की सुरक्षा करो। अरे जब नाम ही डिफेक्टिव है तो काम कैसे इफेक्टिव होगा?''
कार में सवार राजकुमार जब जाम पीते हुए ड्राइविंग करते हैं तो जाम लगना लाजमी है। आदमी घर से निकलता है तो गारंटी नहीं होती कि वह शाम को सुरक्षित लौट भी आएगा। आने वाले समय में गृहणियाँ प्रतिदिन अपने टू व्हीलर की पूजा करती नजर आएँगी। वे बाइक या स्कूटर को प्रणाम करते हुए प्रार्थना करेंगी- ''हे दुपहिया! तू मेरे साथ दहेज में आया है। इसलिए तू मेरे भाई के समान है। मेरे सुहाग की सुरक्षा करना तेरा कर्तव्य है। इन्हें जैसा लेकर जा रहा है शाम के वक्त वैसा ही साबुत लौटा लाने की जिम्मेदारी भी तेरी ही है। मार्ग में खौफनाक ट्रैफिक तुझे ऐसा नहीं करने देगा लेकिन वादा कर कि तू तेरी इस बहिन के सुहाग की रक्षा करेगा।''
कुछ साल पहले मैंने एक कार्टून देखा था। शायद आर. के. लक्ष्मण का था। कार्टून एक खबर पर था। खबर थी कि सन् दो हजार दस तक मुम्बई में पन्द्रह लाख चार पहिया वाहन हो जाएँगे। कार्टून के नीचे केप्शन में लिखा था कि ''जिसे रोड क्रॉस करना हो अभी कर ले।''
वाकई वाहन इतने बढ़ गए हैं कि पार्किंग के लिए जगह नहीं बची। एक चुटकुले के अनुसार एक आदमी दोपहर के वक्त सड़क के किनारे दोनों हाथ-पाँव फैलाकर अजीबोगरीब मुद्रा में खड़ा था। कारण पूछने पर उसने बताया कि मेरी बीवी शोरूम से कार खरीदने गई है और मैं यहाँ पर पार्किंग के लिए जगह रोककर खड़ा हूँ।
कोलकाता में तो सचमुच भयानक किस्म का ट्रैफिक होता है। जाम में फँसने के बाद आपकी कार सेन्टीमीटर के हिसाब से आगे सरकती है। वहाँ रात को तीन बजे एक सूटेड-बूटेड नौजवान दहाड़ें मारकर रो रहा था।
मैंने पूछा- ''तू कौन है और क्यों रो रहा है?''
वह बोला-''मैं दूल्हा हूँ।''
मैंने पूछा- ''फिर बारात कहाँ है?''
उसने जवाब दिया- ''वह जाम में फँस गई।''
मैंने पूछा-''घोड़ी?''
वह बोला-''घोड़ी ऐसी दौड़ी कि रेडलाइट क्रास करके आगे निकल गई। पुलिस वाले ने रोक लिया। घोड़ी को कांजी हाउस भेज दिया। मैंने ले देकर पिण्ड छुड़ाया। एक स्कूटर कबाड़ा और आगे बढ़ा तो जल्दबाजी में नोएन्ट्री में घुस गया। फिर चालान हुआ। वापस आया तो वन वे में उलझ गया। मैं मुहुर्त के समय तक ससुराल पहुँच ही नहीं पाया। अभी-अभी मोबाइल पर एसएमएस मिला है कि दुल्हन की शादी पड़ोस में रहने वाले किसी युवक के साथ कर दी गई है। तुम्हीं बताओ रोऊँ नहीं तो क्या हँसूं?




-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)

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Saturday, September 26, 2015

मोबाइल और मिसेज

मोबाइल और मिसेज में बहुत समानताएँ हैं। यह तय करना मुश्किल है कि दोनों में से कौन ज्यादा बड़ी बीमारी है? दोनों के प्राइस प्लान जेबकाटू होते हैं और सँवाद माथा चाटू। शुरु-शुरु में आदमी दोनों को शौक-शौक में रखता है और बाद में सारी जिन्दगी इस महंगे और अन-अफोर्डेबल शौक का मजा चखता है।
मोबाइल और मिसेज दोनों का यद्यपि बीमा होता है लेकिन बीमे का ये नुस्खा मनुष्य को कभी फायदा नहीं करता क्योंकि क्लेम पाने के चक्कर में जिन्दगी भर प्रीमियम भरना पड़ता है। मोबाइल और मिसेज दोनों को घर में लाने के बाद हर आदमी पछताता है। पछताते-पछताते वह सोचता है कि चैन से सोने के लिए मैं जिन्हें घर में लाया था, उन्हीं की वजह से नींद हराम हो गई है। इतनी जल्दबाजी में इन्हें घर में ले आने का फैसला ठीक नहीं था। कुछ दिन रुक  जाते तो शायद और नया मॉडल मिल जाता।
सिर्फ समानताएँ ही नहीं हैं। मोबाइल और मिसेज में अन्तर भी बहुत हैं। मोबाइल को तो आप फिर भी स्विच ऑफ कर सकते हैं लेकिन मिसेज को नहीं। स्विच ऑफ करना तो दूर करने की सोचना भी रिस्की है। उसे जरा सी भी भनक लग जाने पर वह आपको स्विच ऑफ कर ही सकती है। किन्तु मान लो कि वह वापस ऑन करना भूल गई तो लेने के देने पड़ जाएँगे।
मोबाइल चेंजेबल होता है किन्तु मिसेज अनचेंजेबल और अनचेलेंजेबल। लोग बताते हैं कि मोबाइल के तो बाजार में अक्सर एक्सचेंज ऑफर आते रहते हैं। कम्पनियाँ पेपर में एड दे देकर कहती हैं कि पुराना लाओ और नया ले जाओ। लेकिन मिसेज के मामले में यह सुविधा किसी को भी प्राप्त नहीं है। मोबाइल की तो गारण्टी-वारण्टी भी होती है लेकिन मिसेज की न कोई गारण्टी, न वारण्टी और न ही रिप्लेसमेंट टोटली डूबा हुआ इन्वेस्टमेंट।
अपना तो काम ही सोचने का है अत: समानताओं और असमानताओं के में कई और बिन्दु भी खोज सकता था लेकिन तभी मेरे दिमाग में अचानक उठे विचार ने मुझे विचलित कर दिया। मैं सोचने लगा कि अगर मेरी ही तरह मिसेज भी मोबाइल और हजबेण्ड में तुलना करने लगी तो गजब हो जाएगा। उस तुलना के नतीजों की कल्पना मात्र से ही मेरे पसीने छूटने लगे हैं, इसलिए मैं घबराकर इस लेख को यहीं पर विराम दे रहा हूँ।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)

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Friday, September 25, 2015

महिमा मॉर्निंग वॉक की

मॉर्निंग वॉक के किस्से बड़े दिलचस्प हैं। मैं सैंट्रल पार्क में रोज सुबह टहलने जाता हूँ। ज्यादातर लोग एक-दूसरे को पहचानने लगते हैं। एक दिन स्त्री-पुरुष का एक नया जोड़ा टहलने आया। पुरुष तो नजारे देखने में व्यस्त था और स्त्री बोलने में। स्त्री लगातार बोल रही थी और पुरुष अनमने मन से सुनने का अभिनय कर रहा था। मैं झट समझ गया कि इन दोनों के बीच पति-पत्नी का रिश्ता है। दो दिनों तक निरंतर यही क्रम चला। तीसरे दिन पति कानों में ईयर फोन लगाकर टहल रहा था लेकिन पत्नी फिर भी बोले जा रही थी। चौथे दिन मैंने देखा कि पत्नी यह देखने में व्यस्त थी कि उसका पति किन-किन को देखने में व्यस्त है। जैसे ताक-झाँक वैसे ही वाक-झाँक।
मॉर्निंग वॉक की महिमा अपार है। घूमने का घूमना और देखने का देखना। सैंट्रल पार्क में मॉर्निंग वॉक करते हुए मुझे पता ही नहीं चलता कि कुछ लोग मुझे देख रहे हैं। कारण यह कि उस समय मैं तो खुद दूसरों को देख रहा होता हूँ। मुझे तो अब तक सिर्फ यही पता चल पाया कि मैं जिनको देख रहा होता हूँ वो किन्हीं औरों को देख रहे होते हैं। इसी भ्रम में मॉर्निंग वॉक का पूरा समय गुजर जाता है कि मैं तो सबको देख रहा हूँ लेकिन मुझे कोई नहीं देख रहा है।
मोटापे की वजह से मेरी रफ्तार अक्सर धीमी होती है। इसलिए अपनी स्पीड को लेकर मैं हमेशा कॉम्पलेक्स का शिकार रहता हूँ। एक दिन मैंने अपनी रफ्तार बढ़ाई। वाकिंग ट्रेक पर अपने से आगे चल रहे आदमी को मैंने ओवरटेक कर दिया। मेरी प्रसन्नता अभी शुरू भी नहीं हो पाई थी कि इतने में एक-एक करके तीन आदमी मुझे ओवरटेक करते हुए आगे निकल गए। मैं समझ गया कि कोई विजय प्रसन्नता के लायक नहीं है तथा कोई भी पराजय ऐसी नहीं है जिस पर शोक करके बैठना पड़े। हमें तो सिर्फ यथासामथ्र्य चलते रहना होता है। क्योंकि पहुँचता वही है जो निरंतर चलता रहता है। ऑब्जर्वेशन,अनालिसिस और कन्क्लूजन की शार्पनेस मॉर्निंग वॉक से ही आती है।
मनुष्य के जीवन की सफलता के सारे रहस्य उसकी लाइफ स्टाइल में छिपे हुए हैं और लाइफ स्टाइल की सार्थकता के सारे रहस्य छिपे हुए हैं मॉर्निंग वॉक में। आदमी दिन भर दौड़ता है ताकि वह समय के साथ चल सके। क्योंकि समय ही भगवान है। दिन भर लगातार दौड़कर भी मनुष्य जिस समय को पकड़ नहीं पाता मॉर्निंग वॉक करने वाले सुबह उठते ही उसे पकड़ लेते हैं। दिन भर पकड़े रहते हैं। शाम पड़ते-पड़ते तो समय भी उनके चंगुल से मुक्त होने के लिए छटपटाने लगता होगा। लेकिन वे सोने का समय होने तक समय का पिण्ड नहीं छोड़ते। तभी तो कहते हैं कि व्यस्त आदमी के पास हर काम के लिए समय होता है। फालतू आदमी के पास खुद के लिए भी समय नहीं होता।
मॉर्निंग वॉक यानी सुबह पैदल चलना ताकि बॉडी की फिटनेस का लेवल हाई रहे। हमारे ऋषि मुनि जानते थे इसलिए सुबह निपटने के लिए दो-तीन किलोमीटर दूर पैदल जाते थे। उस फिटनेस के बल पर वे सैकडों वर्षों तक जीवित रहते थे। वनवास के दौरान भगवान श्री राम ने पैदल चल-चलकर अपनी बॉडी का फिटनेस लेवल इतना बढ़ा लिया कि रावण को मारने में उन्हें कोई खास प्रॉब्लम नहीं आई। ऐसा ही फिटनेस लेवल कृष्ण जी ने गायें चराते समय पैदल चलकर प्राप्त किया था तभी एक ही बॉक्सिंग में कंस जैसे राक्षस को ठण्डा कर दिया। पाण्डवों की जीत में भी फिजीकल फिटनेस का ही रहस्य छिपा हुआ है। ये फिटनेस उन्होंने वनवास के दौरान पैदल चलकर प्राप्त की थी। वे जानते थे कि वाहन का उपयोग करने से बॉडी अनफिट हो जाती है। द्वापर और त्रेता युग में ही क्यों कलयुग में ही देख लो। गाँधीजी ने दांडी मार्च समेत अनेक पैदल यात्राएँ की। फिजीकल और मेंटल फिटनेस का लेवल इतना हाई हो गया कि बिना लाठी चलाए अंग्रेजों को भगा दिया।
मेरे एक दोस्त ने कहा- तुम्हारी थ्योरी गलत है। घोड़ा खूब दौड़ता है, कुत्ता खूब पैदल चलता है। दोनों दस पंद्रह साल से ज्यादा जीवित नहीं रहते। अजगर पड़ा रहता है और सौ साल जीवित रहता है। इससे निष्कर्ष निकलता है कि पैदल चलने या दौडऩे से उम्र कम होती है। मैंने कहा दोस्त मेरी थ्योरी मनुष्यों के लिए है और तुम्हारी जानवरों के लिए। इसलिए मॉर्निंग वॉक मनुष्यों की दिनचर्या का आभूषण है। मैं तो अपनी कह रहा हूँ तुम्हारी तुम जानो।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


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