Saturday, September 26, 2015

मोबाइल और मिसेज

मोबाइल और मिसेज में बहुत समानताएँ हैं। यह तय करना मुश्किल है कि दोनों में से कौन ज्यादा बड़ी बीमारी है? दोनों के प्राइस प्लान जेबकाटू होते हैं और सँवाद माथा चाटू। शुरु-शुरु में आदमी दोनों को शौक-शौक में रखता है और बाद में सारी जिन्दगी इस महंगे और अन-अफोर्डेबल शौक का मजा चखता है।
मोबाइल और मिसेज दोनों का यद्यपि बीमा होता है लेकिन बीमे का ये नुस्खा मनुष्य को कभी फायदा नहीं करता क्योंकि क्लेम पाने के चक्कर में जिन्दगी भर प्रीमियम भरना पड़ता है। मोबाइल और मिसेज दोनों को घर में लाने के बाद हर आदमी पछताता है। पछताते-पछताते वह सोचता है कि चैन से सोने के लिए मैं जिन्हें घर में लाया था, उन्हीं की वजह से नींद हराम हो गई है। इतनी जल्दबाजी में इन्हें घर में ले आने का फैसला ठीक नहीं था। कुछ दिन रुक  जाते तो शायद और नया मॉडल मिल जाता।
सिर्फ समानताएँ ही नहीं हैं। मोबाइल और मिसेज में अन्तर भी बहुत हैं। मोबाइल को तो आप फिर भी स्विच ऑफ कर सकते हैं लेकिन मिसेज को नहीं। स्विच ऑफ करना तो दूर करने की सोचना भी रिस्की है। उसे जरा सी भी भनक लग जाने पर वह आपको स्विच ऑफ कर ही सकती है। किन्तु मान लो कि वह वापस ऑन करना भूल गई तो लेने के देने पड़ जाएँगे।
मोबाइल चेंजेबल होता है किन्तु मिसेज अनचेंजेबल और अनचेलेंजेबल। लोग बताते हैं कि मोबाइल के तो बाजार में अक्सर एक्सचेंज ऑफर आते रहते हैं। कम्पनियाँ पेपर में एड दे देकर कहती हैं कि पुराना लाओ और नया ले जाओ। लेकिन मिसेज के मामले में यह सुविधा किसी को भी प्राप्त नहीं है। मोबाइल की तो गारण्टी-वारण्टी भी होती है लेकिन मिसेज की न कोई गारण्टी, न वारण्टी और न ही रिप्लेसमेंट टोटली डूबा हुआ इन्वेस्टमेंट।
अपना तो काम ही सोचने का है अत: समानताओं और असमानताओं के में कई और बिन्दु भी खोज सकता था लेकिन तभी मेरे दिमाग में अचानक उठे विचार ने मुझे विचलित कर दिया। मैं सोचने लगा कि अगर मेरी ही तरह मिसेज भी मोबाइल और हजबेण्ड में तुलना करने लगी तो गजब हो जाएगा। उस तुलना के नतीजों की कल्पना मात्र से ही मेरे पसीने छूटने लगे हैं, इसलिए मैं घबराकर इस लेख को यहीं पर विराम दे रहा हूँ।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)

सुरेन्द्र दुबे (जयपुर) की प्रकाशित पुस्तक
'डिफरेंट स्ट्रोक'
में प्रकाशित व्यंग्य लेख

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