Wednesday, September 30, 2015

महिमा ब्लू लाइन की

दिल्ली और राजस्थान की ब्लू लाइन बसों में बहुत फर्क है। दिल्ली की ब्लू लाइन बस अगर चल देती है तो रुकने का नाम नहीं लेती और राजस्थान की ब्लू लाइन बस अगर रुक जाती है तो चलने का नाम ही नहीं लेती। वहाँ की ब्लू लाइन किलोमीटर के हिसाब से दौड़ती है और यहाँ की ब्लू लाइन सेन्टीमीटर के हिसाब से सरकती है। दिल्ली की ब्लू लाइन किसी के भी टक्कर मार देती है और राजस्थान की ब्लू लाइन के कोई भी टक्कर मार देता है। वहाँ वह सबको ओवरटेक करती है और यहाँ साइकिल तक उसे ओवरटेक कर देती है। वह एक्सीडेन्ट करती रहती है और इसके साथ एक्सीडेन्ट होते रहते हैं।
कवि सम्मेलन में पहुँचने के लिए मुझे सरकारी बस से जाना था। सवारियों से लदी सरकारी बस में अभी मैं घुसा ही था कि ड्राइवर ने आवाज लगाई-''जिन यात्रियों ने टिकट नहीं लिया हो पहले वे बुकिंग विन्डो से टिकट ले आएँ क्योंकि बस में कन्डक्टर नहीं है।'' ड्राइवर का ऐलान सुनते ही मैं चौंका। मैंने सोचा कि पता नहीं इस बस में कन्डक्टर के अलावा और क्या-क्या नहीं है? इसलिए मैं घबराकर तुरंत उस बस से नीचे उतर गया।
हड़बड़ाहट में मैं उसी रुट की दूसरी बस में सवार हुआ तो इस बार कन्डक्टर की आवाज आई-''जिन यात्रियों को वाकई जाना है, उन्हें उतरकर बारी-बारी धक्का लगाना है क्योंकि इस बस में ड्राइवर नहीं है।'' घबराकर मैं उसमें से भी उतर गया। तभी मेरी नजर उसी रुट की एक अन्य बस पर पड़ी जो एक पेड़ की छाया में शान्तिपूर्वक खड़ी थी। उस खाली खड़ी बस में ड्राइवर और कन्डक्टर हमारे नेताओं की तरह गहरी नींद में सो रहे थे।
उस बस के पास खड़ा-खड़ा मैं सोचने लगा कि हमारी परिवहन व्यवस्था भी कमाल हैं। जिस बस में ड्राइवर है उसमें कन्डक्टर नहीं है। जिस बस में कन्डक्टर है उसमें ड्राइवर नहीं है। और जिस बस में ड्राइवर-कन्डक्टर दोनों हैं, उसमें पेसेन्जर नहीं है। जानकारी करने पर मैंने पाया कि जिस बस में ड्राइवर,कन्डक्टर और पेसेन्जर हैं उसमें डीजल नहीं है। जिस बस में डीजल है वह पंचर पड़ी है। स्टेण्ड पर बेबस खड़ी है। बेचारी जा ही नहीं सकती हमारे प्यारे लोकतंत्र में लोक की तकलीफें तंत्र की समझ में कभी आ ही नहीं सकती।
अन्तत: मैं एक बस में किसी तरह ठँसा। बैठते ही मैंने यात्रियों से पूछा-''अमुक गांव तक जाने में यह बस कितना समय लेती है?'' यात्रियों ने बताया-आप समय की मत पूछिए बस पहुँचा देती है। दरअसल उधर की रोड़ खराब है। बस जैसे-तैसे पहुँच जाएगी। खैर बस चली तो सही लेकिन शहर में ही रुक गई। बेचारी एक जगह खड़ी हो गई। धर्र... धर्र... कर रोने लगी सड़क पर जाम लगा हुआ था। जाम खुला तो आगे चलकर रेल्वे क्रासिंग पर फाटक बन्द हो गया। फाटक खुला और बस आगे बढ़ी तो आगे लोगों ने चक्का जाम कर रखा था।
कदम-कदम पर अव्यवस्था से उपजी तकलीफों के शिकार हम लोग हर हाल में जाने को आतुर हैं। कभी पहले टिकट पाने के लिए लाइन तोड़ रहे हैं तो कभी सीट पाने के लिए आपस में एक-दूसरे का सिर फोड़ रहे हैं। गाली-गलोज से लेकर हाथापाई तक के सारे हथकन्डे हमारी शान हैं। सचमुच हमारी व्यवस्था कितनी महान है। जो निदेशालय में बैठकर इन्हें चलवाते हैं वे कभी इन बसों में नहीं जाते हैं। सोचते हैं भीड़-भाड़ में जाएँ इससे तो अच्छा है कि भीड़-भाड़ में जाए। सरकार ने कार दे रखी है, अपने परिवार को उसी सरकारी कार में घुमाएँगे।
टोटली मिस मैंनेजमेंट की शिकार हमारी व्यवस्था में सब कुछ है बस समय पर सुरक्षित पहुंँचाने की गारण्टी नहीं है। इसीलिए प्रत्येक बस में लिखवा दिया है कि ईश्वर आपकी यात्रा सफल करे। सरकार ने शायद यहाँ मैंनेजमेंट का एक नया तरीका निकाल रखा है। सुरक्षा गायों को सौंप रखी है और दूध देने का जिम्मा कुत्तों पर डाल रखा है।
सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)

सुरेन्द्र दुबे (जयपुर) की प्रकाशित पुस्तक
'डिफरेंट स्ट्रोक'
में प्रकाशित व्यंग्य लेख

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