Thursday, October 1, 2015

मूल निवास प्रमाण पत्र

पिछले दिनों अपनी बिटिया का मूल निवास प्रमाण पत्र बनवाने के लिए सुबह ठीक साढ़े दस बजे कलेक्ट्रेट पहुँचा। दिन भर वहाँ के बाबुओं ने मुझे ऐसा चकरधिन किया कि शाम पाँच बजते-बजते तो मैं खुद अपना मूल निवास भूल गया। समस्या यह खड़ी हो गई कि अपना पता याद न रहने पर मैं घर कैसे जाऊँ? मजबूरी में मैंने भूल निवास प्रमाण पत्र के लिए अप्लाई किया तब जाकर घर लौट सका।
हुआ यों कि सावधानी से भरकर प्रस्तुत किए गए फॉर्म को बाबू ने लापरवाही से रिसीव किया। मैंने निवेदन किया-''देख लीजिए कहीं कोई गलती तो नहीं हो गई है?'' मैंने कहा-''मेरा परिवार पीढियोंं से यहाँ राजस्थान में रह रहा है। मेरे पिताजी भी यहाँ राज्य सेवा में रहकर रिटायर हुए। बच्ची भी यहीं पैदा हुई है और यहीं इसने अपनी सारी पढ़ाई की है। मेरी समझ से इसमें कोई प्रॉब्लम नहीं आनी चाहिए।'' वह बोला-''प्राब्लम का फैसला तो आपकी समझ से नहीं, हमारी समझ से होगा।''
खैर, फॉर्म के साथ अटेच्ड सपोर्टिंग डॉक्यूमेन्ट को देखते-देखते अचानक उसकी आँखों में चमक आ गई और उसके होठों पर एक विषैली मुस्कान तैरने लगी। उसने गर्दन उठाई तथा मेरी आँखों में आँखें डालकर कहा-''इन कागजात के आधार पर तो मूल निवास प्रमाण पत्र बनना बहुत मुश्किल है।'' उसकी बात सुनते ही मेेरे कॉन्फीडेन्स की हवा निकल गई। मैंने पूछा- ''क्या प्रॉब्लम है?'' उसने समझाया-''प्रॉब्लम ये है कि जिस जिले में आप दस साल से ज्यादा रहे हो, उसमें पिछले तीन वर्षों से लगातार नहीं रह रहे हो और इस जिले में आप अढाई साल से रह रहे हो तो यहाँ आप दस साल से नहीं रहे हो। सरकारी कर्मचारी के लिए भी नियम, पिछले तीन वर्षों से लगातार इस जिले में रहने का है। हाँ, 6 महीने बाद यह आराम से बन जाएगा।''
मैंने कहा-''यार ६ दिन बाद तो काउन्सलिंग है। मुझे जयपुर जिले का नहीं राजस्थान का मूल निवासी होने का प्रमाण पत्र दे दो। माँगा भी वही है।'' वह बोला-''माँगा तो राजस्थान का जाता है लेकिन नियमानुसार जिले का ही बनाया जाता है। राजस्थान के मूल निवासी होने का प्रमाण पत्र कहीं भी नहीं बनता। सारे पेच इसी बात में हैं। यहाँ तो सारा काम नियमानुसार ही होता है।'' मैंने सोचा यार। क्या गजब का दफ्तर है? सारा काम नियमानुसार ही होता है। नियम यह है कि सही काम अटकना जरूर चाहिए, भले ही फर्जी काम आराम से हो जाए।
मेरी बात सुनकर उसे झटका लगा। वह कहने लगा-''अब आप चाहे जो समझिए साहब पर काम तो नियमानुसार ही होगा। हम तो साहब के सामने पुट अप कर देंगे। फिर उनके विवेक पर है वे करें, ना करें। वैसे सरकारी काम में कौनसा अफसर है जो अपना विवेक लगाएगा? सरकारी विवेक तो हम हैं, हमारा विवेक ही काम आएगा।''
उसका सारगर्भित व्याख्यान सुनकर मेरे होश उड़ हो गए। मैंने विनम्र होते हुए कहा-''भले आदमी। कई एग्जाम देने के बाद एक ही काउन्सलिंग में उसका नंबर आया है। यह भी निकल गई तो गजब हो जाएगा। ऐसा करो मुझे साहब से मिलवा दो।'' वह बोला-''अभी तो नहीं है। जब आएँ तब मिल लेना।'' मैंने पूछा-''कब आएँगे।'' वह बोला-''इस बारे में हम क्या कह सकते हैं? वो हमारे साहब हैं, हम उनके साहब थोड़े ही हैं। वैसे वो साहब भी क्या साहब है जो हर समय सीट पर बैठा मिल जाए।''
मैं समझ गया कि मेरा काम अटक चुका है। मैंने हँसते हुए कहा-''काम को इस पुराने तरीके से अटकाने में आपको भी क्या मजा आया होगा जब मुझे अटकवाने में ही नहीं आया।'' उसने पूछा-''क्या मतलब?'' मैंने कहा-''आप लोग काम करने की बजाय काम को अटकवाने के लिए बैठे हैं तो फिर तरीका भी इनोवेटिव होना चाहिए। इसके लिए आप मूल निवास प्रमाण पत्र के लिए आवेदन पत्र का नया परफोरमा बनाइए और उसमें आवेदक से पूछिए 1.नाम 2.पिता का नाम 3.ये कब से आपके पिता हैं। 4. पिछले दस वर्षों में कौन-कौन आपके पिता रहेे? 5. पिछले तीन वर्षों से लगातार पिता का नाम? आदि।'' मेरी बात सुनकर वह खुद हँसते-हँसते लोटपोट हो गया। हँसते हुए उसने अगले दिन आने की तथा एक और सर्पोटिंग डॉक्यूमेन्ट लाने की कारगर सलाह दी।
खैर अगले दिन मुझे मूल निवास प्रमाण पत्र मिल गया लेकिन मैं सोचने लगा कि सतयुग में एक सावित्री हुई थी जो यमराज से अपने पति के प्राण लेकर आ गई थी। उसने एक असम्भव सा काम कर दिखाया था। लेकिन इस कलयुग में उसे अगर यह कहा जाए कि आप कलेक्ट्रेट जाकर अपने बच्चे का मूल निवास प्रमाण पत्र बनवा लाओ तो उसके हाथ-पाँव फूल जाएँगे।
पिछले दिनों अपनी बिटिया का मूल निवास प्रमाण पत्र बनवाने के लिए सुबह ठीक साढ़े दस बजे कलेक्ट्रेट पहुँचा। दिन भर वहाँ के बाबुओं ने मुझे ऐसा चकरधिन किया कि शाम पाँच बजते-बजते तो मैं खुद अपना मूल निवास भूल गया। समस्या यह खड़ी हो गई कि अपना पता याद न रहने पर मैं घर कैसे जाऊँ? मजबूरी में मैंने भूल निवास प्रमाण पत्र के लिए अप्लाई किया तब जाकर घर लौट सका।
सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)

सुरेन्द्र दुबे (जयपुर) की पुस्तक
'डिफरेंट स्ट्रोक'
में प्रकाशित व्यंग्य लेख

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