Monday, October 12, 2015

भारतीय क्रिकेट की बीमारियाँ

मुझे तो लगता है कि भारतीय क्रिकेट टीम पर किसी प्रेतात्मा का साया है। वरना जो खिलाड़ी प्रथम चौबीस खिलाडिय़ों में अपनी जगह नहीं बना सका वह पहले सोलह खिलाडिय़ों में कैसे जगह पा गया? मुझे पक्का शक है कि वह प्लेइंग इलेवन में भी आ ही जाएगा। इसलिए भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को कोच की जगह किसी तांत्रिक की सेवाएँ लेनी चाहिए जो उसे ऐसी प्रेतबाधा से निजात दिला सके।
टीम इण्डिया को कोच मिलता है तो कैप्टन नहीं मिलता। कैप्टन मिलता है तो कोच नहीं मिलता। कैप्टन और कोच मिल जाए तो दोनों का आपस में सोच नहीं मिलता। कोच के रहते ताकतवर टीम भी हारने लगती है। बिना कोच कमजोर टीम भी जीतती चली जाती है। मैनेजर ही टीम को जिता लाता है। फिर भी हमें कोच की जरूरत है। कोच भी विदेशी हो। इसलिए कि कहीं हमारी टीम को हारने की आदत नहीं छूट जाए। सचमुच हारने के लिए मेेहनत करने में हमारा कोई मुकाबला नहीं। बीसीसीआई के अधिकारी मेहनत में कसर नहीं छोड़ते। कोच चाहिए तो कोचेज की पूरी फौज बना दी। बेटिंग कोच, बॉलिंग कोच, फील्डिंग कोच। कोचेज का कोच। धीरे-धीरे एक स्थिति ऐसी भी आएगी कि विदेशी दौरे पर टीम के सोलह खिलाडिय़ों के साथ बत्तीस कोच होंगे।
यह भी एक समस्या है कि कैप्टन किसे बनाएँ? बेट्समैन को कैप्टन बनाते हैं तो टीम एक-एक रन के लिए तरस जाती है और बॉलर को कैप्टन बनाते हैं तो विकेट्स के लाले पड़ जाते हैं। ऐसे में सलेक्टर्स ने विकेटकीपर को कैप्टन बनाकर ट्वन्टी-ट्वन्टी वल्र्ड कप में भेज दिया। सोचा हार भी गए तो कोई बात नहीं। लेकिन यह क्या? वह तो टीम को जिता लाया। राहत की बात तो यह रही कि वह सबसे ज्यादा फिट खिलाड़ी भी अनफिट हो गया। वरना सारी समस्याओं के हल हो जाने पर बोर्ड के अधिकारी बेरोजगार हो जाते। समस्याएँ रहती हैं तो उन्हें भी काम मिल जाता है।
बोर्ड के अधिकारी भी करें तो क्या करें? जिसे चयन की जिम्मेदारी सौंपते हैं वही सच बोलने लगता है। ऐसे में चयनकर्ता के लिखने-बोलने पर पाबन्दी तो जरूरी है ही। वरना उनकी पोल नहीं खुल जाएगी? पिछले दिनों टीम इण्डिया की सलेक्शन कमेटी के चेयरमैन दिलीप वेंगसरकर हिट विकेट आउट होते-होते बचे। तभी तो कहते हैं क्रिकेट बाइ 'लक'। ये 'लक' नहीं तो और क्या है? जिन्होंने कभी क्रिकेट नहीं खेली वे किसी भी इन्टरनेशनल क्रिकेटर को जब चाहें आउट कर सकते हैं और दूसरी तरफ सारे क्रिकेटर मिलकर बोर्ड के एक भी अधिकारी को आउट नहीं कर सकते।
टीम के बेट्समैन रन बनाएँ और बॉलर भी विकेट चटकाने लगें तब फील्डिंग में प्राब्लम आ जाती है। बेचारे फील्डर एक-एक रन रोकते हैं तो बाउण्ड्रीज नहीं रोक पाते। बाउण्ड्रीज रोकते हैं तो कैच छूट जाते हैं। कैच पकड़ते हैं तो रन आउट के अवसर छोड़ देते हैं। हमारी तकदीर में तो क्रिकेट देखते-देखते दु:खी होना ही लिखा है। हमारे फेवरेट बेट्समैन की सेंचुरी बननी है तो हम मैच हार जाते हैं। मैच जीतते हैं तो हमारे फेवरेट बेट्समैन की सेंचुरी नहीं बनती।
खिलाड़ी तो हमें अक्सर निराश करते हैं। हारने के बावजूद हँसकर तो कभी फिक्सिंग के मामलोंं में फँसकर। लगता है कि न तो खिलाडिय़ों को जीतने में रुचि है और न बोर्ड के अधिकारियों की। कहते हैं खेल को खेल की भावना से खेलो। आखिर वह दिन कब आएगा जब हम जीत की भावना से भी खेलने लगेंगे।
असली खिलाड़ी कौनसे हैं? यह शोध का विषय है। क्या वे जो मैदान में खेलते हुए नजर आते हैं? या वे जो बोर्ड के आफिस में बैठकर हमेेशा खेलते ही रहते हैं और कभी दिखाई भी नहीं देते। क्रिकेटर तो गेंद और बल्लेे से खेलते हैं लेकिन बोर्ड के अधिकारी क्रिकेट से खेलते हैं।
कुल मिलाकर भारतीय क्रिकेट अनेक लाइलाज बीमारियों से आभूषित हैं। हालत इतनी खतरनाक है कि उसने क्रिकेट को विकसित करने के लिए बाकी सारे खेलों को बीमार कर दिया है। ठीक वैसे जैसे अमरबेल जिस पेड़ पर चढ़ती है उसे सुखा ही देती है।
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


सुरेन्द्र दुबे (जयपुर) की पुस्तक
'डिफरेंट स्ट्रोक'
में प्रकाशित व्यंग्य लेख

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1 comment:

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