Tuesday, October 27, 2015

विद्यालय में वृक्षारोपण

मानसून तो आया नहीं पर जुलाई का महीना शुरू होते ही सरकारी विद्यालयों में यह आदेश जरूर आ गया कि पेड़ लगाओ। अपने-अपने विद्यालयों में पर्यावरण पखवाड़ा मनाओ। वृक्षारोपण चूंकि हमारा राष्ट्रीय कार्यक्रम है अत: इसे हर कीमत पर सफल बनाना है। इस कार्य में कोताही बरतने वालों के खिलाफ सख्त कार्यवाही की जायेगी, इत्यादि। आदेश मिलते ही ऐसा लगा कि जैसे अचानक शनिचर जी ने अवतार ले लिया हो और वे आदेश का रूप धारण करके पधारे हो।
विद्यालय में 'रेड अलर्ट' हो गया। आनन-फानन में 'स्टाफ मीटिंग' बुलवाई गई। परम्परानुसार सभी अध्यापकों ने सर्वप्रथम मूल आदेश का सावधानी पूर्वक वाचन किया और उसके निचले कोने पर उसी तिथि में अपने संक्षिप्त हस्ताक्षर अंकित कर दिए। जब सारा काम निर्विघ्न रूप से संपन्न हो गया तो चुकी हुई क्षमताओं के धनी प्रधानाध्यापक जी ने स्वयं को किसी 'दिव्य सुरक्षा चक्र' के भीतर पाया।
अब शुरू हुआ आदेश पर सार्थक और गहन विचार विमर्श। एक प्रतिभाशाली अध्यापक ने प्रधानाध्यापक की ओर मुखातिब होकर कहा-''अब तो आपको भी पता चल गया होगा कि पेड़ लगाना हमारा राष्ट्रीय कार्यक्रम है,पढ़ाना नहीं।"
दूसरा अध्यापक बात को आगे बढ़ाते हुए बोला, ''इस आदेश में इस कार्य के निमित्त अतिरिक्त समय देने का निर्देश तो है नहीं, लिहाजा इस पर्यावरण पखवाड़े का सारा काम शाला समय के दौरान ही करना है। ऐसे में पढ़ाई-लिखाई के लिए समय तो बचेगा ही नहीं। इसलिए आदेश पंजिका में  सर्वप्रथम यह आदेश निकाल देना चाहिए कि पर्यावरण पखवाड़े के दौरान समस्त शिक्षण कार्य स्थगित रहेगा।"
तीसरा अध्यापक बोला-''मेरी मानो सबसे पहले अपनी-अपनी 'टीचर्स डायरी' में पूरे पखवाड़े के सभी कालांशों को काटकर सिर्फ एक लाइन लिख दो कि पर्यावरण पखवाड़े से संबंधित सभी कार्यक्रम संपन्न करवाए गए।"
तीनों राष्ट्र निर्माताओं के पावन वचनों को सुनकर प्रधान राष्ट्र-निर्माता की हालत साँप-छछूंदर हो गई। वह बेचारा शान्ति से  'रिटायरमेन्ट' की बाट जोह रहा था कि समानीकरण के तूफान ने अचानक उसे उठाकर प्रधानाध्यापक की कुर्सी पर ला पटका था। नया-नया पद,नया-नया मद, और नया-नया टेंशन; इस बात का कि कहीं खतरे में नहीं पड़ जाये उसकी चिर प्रतिक्षित पेंशन। प्रधानाध्यापक को निरीह मुद्रा में देख पर्यावरण प्रभारी उन्हीं से मुखातिब होकर बोला-''सर! पेड़ तो लगवा देंगे पर इसके लिए पौधे कहाँ से आयेंगे?" इससे पहले कि प्रधानाध्यापक उसके प्रश्न का उत्तर देते, चर्चा को सकारात्मक होते देख शाला प्रभारी ने चर्चा में दखल करतेे हुए पर्यावरण प्रभारी से पूछ लिया- ''आपको पौधे लगवाने के लिए किसने कहा? आदेश तो ठीक से पढिय़े पहले। साफ लिखा है कि पेड़ लगाओ। फिर आप पौधे क्यों लगवाना चाहते हैं? पेड़ और पौधे मेें फर्क समझते हैं आप?" शाला प्रभारी ने पर्यावरण प्रभारी के सवाल के चिथड़े उड़ा दिए।
पर्यावरण प्रभारी ने जवाब दिया, ''पेड़ लगाओ या पौधे लगाओ, एक ही बात है।" जवाब सुनते ही पर्यावरण प्रभारी ने फुफकारते हुए प्रति प्रश्न किया- ''एक ही बात कैसे है? आपको ब्यावर से 'रिलीव" तो विजयनगर के लिए किया है, ऐसे में आप गुलाबपुरा जाकर 'ज्वाइन' कर लेंगे क्या? फिर पूछने पर क्या यह तर्क देंगे कि दोनों में मामूली फर्क है इसलिए इसे एक ही बात समझी जाए।
अपने पर्यावरण प्रभारी को मात खाते देख प्रधानाध्यापक ने मोर्चा संभालते हुए शाला प्रभारी से कहा- ''भाषा पर मत जाओ, भावना को समझने की कोशिश करो।"
प्रधानाध्यापक की सलाह शाला प्रभारी को ऐसी लगी कि जैसे उसे किसी बिच्छु ने डंक मार दिया हो। वह लगभग चीखते हुए बोला, ''अपनी भावनाओं को अपने पास रखो हैड मास्टर साब, यहाँ सबकी नौकरी का सवाल है। जैसा आदेश है, वैसा करो। आदेश कहता है कि पेड़ लगाने है पेड़ लगाओ, पौधे लगाने है तो पौधे लगाओ, बीज लगाने है तो बीज लगाओ पर अपना सड़ा हुआ दिमाग मत लगाओ।" शाला प्रभारी की वाणी में, सिर्फ दो दिन की वरिष्ठता कम होने के कारण प्रधानाध्यापक न बन पाने की वेदना क्रोध बनकर फूट पड़ी थी।
जब प्रधानाध्यापक ने यह दलील दी कि- ''अपना विवेक भी तो काम में लो" तब एक मसखरे अध्यापक ने तुरन्त यह टिप्पणी जड़ दी कि ''आपका तो विवेक लगभग खत्म हो चुका है सर, इसीलिए तो सरकार सिर्फ दो माह के बाद आपको 'रिटायर' करने वाली है।"
शाला प्रभारी ने चर्चा में हावी होते हुए तर्क दिया कि ''सीधी सी बात आपकी समझ में नहीं आ रही है। विभाग ने अगर आपको 'टेबल' खरीदने का बजट दिया है तो आप टेबल की जगह 'स्टूल' खरीद सकते हैं क्या? 'फिजीकल वेरीफिकेशन' में आप 'स्टूल' को 'टेबल' साबित कर सकते हैं क्या? जब ऐसा होना संभव नहीं है तब पेड़ की जगह पौधे कैसे लगाए जा सकते हैं?" शाला प्रभारी का तर्क सुनकर प्रधानाध्यापक और पर्यावरण प्रभारी दोनों एक दूसरे का मुँह ताकने लगे। दोनों की खामोशी का लाभ उठाते हुए वही मसखरा अध्यापक बोला, ''इसमें लिखा है सर कि पेड़ लगाओ, लगा देंगे। पर इतने बड़े पेड़ को आप खुद हिलाकर तो दिखाओ। जिस पेड़ का आप खुद तो हिला तक नहीं पाएँ, और आप हमसे उम्मीद कर रहे हैं कि हम उसे उखाड़े और विद्यालय परिसर में लाकर लगाएँ। यह कैसे हो सकता है?"
खैर, हुआ यों कि बिना किसी निष्कर्ष पर पहुंँचे 'स्टाफ मीटिंग' के प्राण पखेरू उड़ गए। पर्यावरण पखवाड़े के दौरान क्या-क्या गतिविधियाँ हुई किसी को कुछ पता नहीं पर शिक्षण कार्य अवश्य स्थगित रहा। अनुपालना की दैनिक सूचना प्रतिदिन मुस्तैदी से तैयार करके भेजी जाती रही। आखिरी दिन प्रभात फेरी निकाली गई जो पूरी तरह पर्यावरण को समर्पित थी। एक पेड़ को काटकर ठेले पर लादा गया। प्रभात-फेरी में बीचों-बीच उसे सजाकर पूरे गांव में यह संदेश देने के लिए घुमाया गया कि इस तरह के पेड़ लगाने हैं। प्रत्येक छात्र के दोनों हाथों में उस पेड़ की एक-एक टहनी थी। किसी को पता नहीं कि पर्यावरण पखवाड़े के दौरान क्या  काम हुआ? पर यह सभी ने देखा कि एक निर्दोष पेड़ का काम तमाम हुआ।
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


सुरेन्द्र दुबे (जयपुर) की पुस्तक
'डिफरेंट स्ट्रोक'
में प्रकाशित व्यंग्य लेख

सम्पर्क : 0141-2757575
मोबाइल : 98290-70330
ईमेल : kavidube@gmail.com

No comments:

Post a Comment