Friday, October 2, 2015

मास्टर जी की आत्मकथा


एक सरकारी स्कूल में टीचर बनकर मैं बहुत प्रसन्न था क्योंकि बड़ी मुश्किल से मुझे बेरोजगारी से निजात मिली थी। लेकिन मेरी खुशी ज्यादा दिन नहीं टिकी। गर्मियों की छुट्टियाँ बिताने के लिए आत्मगौरव से अभिभूत होकर जब मैं अपने गाँव पहुँचा तो एक बुजुर्ग ने मुझसेे पूछ लिया-''तेरी कहीं नौकरी लग गई है या अभी तक मास्टरी ही कर रहा है?'' दरअसल जिस मास्टरी को मैं जिन्दगी समझ रहा था उसे वे नौकरी मानने के  लिए भी तैयार नहीं थे।
खैर, मुझे उनसे क्या? मेरी खुशियों के क्षितिज सबसे अलग थे तो मेरी पीड़ाओं के पहाड़ भी सबसे अलग। मैं अच्छी तरह जानता था कि मैं गुरु नहीं शिक्षक हूँ। लेकिन लोग जब मुझे गुरुजी के नाम से संबोधित करते तो मैं उतना ही प्रसन्न होता जितना थानेदार के नाम से पुकारे जाने पर पुलिस का नया-नया काँस्टेबल खुश होता है।
अभी मैैंने टीवी के समाचारों में देखा है कि राष्ट्रपति के पद से रिटायर होने के बाद हमारे पूर्व राष्ट्रपति माननीय कलाम-सा एक स्कूल में जाकर बच्चों की क्लास ले रहे हैं। मैं सोचने लगा कि इन्हें मास्टर बनने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़े। पहले वैज्ञानिक बने। फिर राष्ट्रपति बने रहे तब जाकर स्कूल में पढ़ाने का मौका मिला। मैं कितने फायदे मेें रहा। बी.एड. की और डायरेक्ट मास्टर बन गया।
मैं थर्डग्रेड में टीचर था। यानी शिक्षकों में सबसे निचले दर्जे का शिक्षक। प्राइमरी स्कूल में पढ़ाने वाला। लोग भी कहते रहते थे कि असली शिक्षक तो वही है जो प्राइमरी स्कूल में क ख ग सिखाता है। लेकिन दूसरी असलियत यह थी कि स्कूल में मेरे पद से नीचे के पद पर सिर्फ चपरासी का पद ही होता था। जिस स्कूल में चपरासी का पद न हो वहाँ मैं चपरासी भी होता था। हैड मास्टर जी न हों तो वह भी मैं ही। मेरे चारों तरफ जिम्मेदारियाँ ही जिम्मेदारियाँ। अधिकार कुछ भी नहीं। इसे कहते हैं सच्चा राष्ट्र निर्माता।
स्कूल की बिल्डिंग टूटी-फूटी है तो बाहर बैठ कर पढ़ाओ। टाइम पर आओ और टाइम पर जाओ। नियमित पोषाहार का वितरण करवाओ। सूचनाएँ बनाकर ऊपर भिजवाओ। ये सब गंभीरता से करो फिर चाहे पढ़ाओ या ना पढ़ाओ।
शिक्षक एक मल्टीपरपज सरकारी कर्मचारी है। उससे अपेक्षा की जाती है कि वह नामांकन बढ़ाए, प्रवेशोत्सव मनाए, टूर्नामेंट कराए। ये सर्वे करे-वो सर्वे करे, ये गणना करे-वो गणना करे। सरकार गिर जाए तो चुनाव करवाए। मतदाता सूचियाँ बनाए। पेड़ लगवाए। परिवार नियोजन की प्रेरणा दे। फिर अगर टाइम मिल जाए तो बच्चों को पढ़ा भी दे।
दरअसल हमारे तंत्र में बिजली, पानी, चिकित्सा, पुलिस आदि महकमों की सेवाएँ तो आवश्यक सेवाओं की श्रेणी में आती है। शिक्षा इस आवश्यक श्रेणी में शामिल नहीं है। शायद यह अनावश्यक श्रेणी की सेवा होगी। जितनी अनावश्यक सेवा उतने ही अनावश्यक उस सेवा को देने वाले सेवक। शायद इसीलिए शिक्षक आज भी अपने वजूद की तलाश में है। ट्रांसफर को ही लीजिए। यह शिक्षक के जीवन का सर्वाधिक संवेदनशील पहलू है। लेकिन इसमें पंच, सरपंच, विधायक, सांसद सभी की चलेगी बस सिर्फ शिक्षक की ही नहीं चलेगी।
वजूद की बात पर मुझे एक मजेदार चुटकुला याद आया। पता नहीं किसने बनाया। लेकिन है जोरदार। एक बार एक राजा ने यह शर्त रखी कि मेरे हाथी के कान में एक बात कहकर कोई उसे हँसा देगा तो उसे इनाम मिलेगा। दूसरी बात कहकर गंभीर कर देने पर दुगुना इनाम मिलेगा और तीसरी बात कहकर रुला देने मुँह मांगा इनाम दिया जाएगा। कई लोगों ने प्रयास किए लेकिन हाथी न तो हँसा, ना गम्भीर हुआ और न ही रोया। अन्त में एक आदमी ने तीनों कार्य कर दिखाए। राजा ने कहा-''तू मुँह माँगे इनाम का हकदार तो है लेकिन यह बता कि तूने यह सब कर दिखाने के लिए इसके कान में क्या-क्या कहा? उस आदमी ने जवाब दिया कि सबसे पहले तो मैंने इसके कान में कहा कि मैं आज के दौर में भी ऐश-ओ-आराम से जीना चाहता हूँ। हाथी ने सोचा कि ये कितना बेवकूफ है लोगों को खाने के लिए रोटियाँ नहीं मिल रही हैं और यह मूर्ख ऐसे में ऐश-ओ-आराम की सोच रहा है! तो हाथी मेरी बेवकूफी पर हँस दिया। सीरियस इसलिए हुआ कि मैंने उसे दूसरी बात कही कि मैं एक स्कूल में टीचर हूँ। हाथी चिन्तित हुआ। स्कूल टीचर और ऐशओ आराम? कैसे संभव है? इसीलिए वह सीरियस हो गया। अन्तत: जब मैंने उसे बताया कि मैं टीचर भी प्राइमरी स्कूल का हूँ और इस समय अपना ट्रांसफर करवाने की जुगाड़ में हूँ तो मेरी बात सुनने के बाद मेरी दशा देखकर वह रो पड़ा।

सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)

सुरेन्द्र दुबे (जयपुर) की पुस्तक
'डिफरेंट स्ट्रोक'
में प्रकाशित व्यंग्य लेख

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