Friday, October 16, 2015

जय रेगिस्तान

ददुआ, वीरप्पन या ठोकिया देश के किसी भी हिस्से में पलें बढ़ें या रहें लेकिन राजस्थान में नहीं आ सकते। यहाँ पर कोई कितना भी बड़ा हिस्ट्रीशीटर हो वह उनके जैसा बन नहीं सकता। कैसे बन सकता है? आखिर हम लोग इतना तगड़ा प्रिकोशन लेते हैं कि राजस्थान में जंगल ही नहीं उगने देते हैं।
हमारे यहाँ अगर गलती से कोई पौधा उग आता है तो तुरंत सरकारी अधिकारी जाता है और उसे अपनी देखरेख में कटवाता है। आप क्या समझते हैं कि हमने अपने यहाँ रेगिस्तान को फोकट में पनाह दे रखी है? नहीं साहब, हमने इसे बड़े एहतिहात से संभाल रखा है। इसकी जगह अगर जंगल उग आया तो ठोकिया आ जाएगा। कोई नया वीरप्पन या ददुआ पनप जाएगा। आखिर कानून और व्यवस्था भी तो कोई चीज है!
जिन दिनों वीरप्पन जीवित था मैं उसे प्रत्येक कवि सम्मेलन में चुनौती देते हुए कहता था-''वीरप्पन अगर तुझमेंं हिम्मत हो तो राजस्थान में आकर दिखा।'' ऐसी चुनौती कोई, किसी को, कैसे दे सकता है? लेकिन मैं उसे हर मंच से खुलेआम चुनौती देता रहता था, इसलिए नहीं कि मुझे यहाँ की पुलिस की बहादुरी पर ओवर कॉन्फीडेन्स था। लेकिन मैं ऐसा इसलिए करता था क्योंकि मुझे पता होता था कि माइक की आवाज भले ही कितनी भी तेज क्यों न हो उस तक नहीं जा सकती थी। और भले ही चले भी जाए तो मेरी भाषा उसकी समझ में आ ही नहीं सकती थी। क्योंकि मेरी हिन्दी जब हिन्दी भाषियों की समझ में भी मुश्किल से आ पाती है तो फिर उसकी समझ में आने का सवाल ही नहीं उठता।
एक बार ट्री गार्ड में जीवित पौधे दिखाई दिए तो मुझे अपनी आँखों पर भरोसा ही नहीं हुआ। लिहाजा मैंने चश्मा लगाकर देखा फिर उन्हें छूकर कन्फर्म किया। मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि ट्री गार्ड और जीवित पौधे दोनों एक साथ कैसे हो सकते हैं? बचपन से मैं यही देखता आया हूँ कि ट्री गार्ड होगा तो उसमें पौधा नहीं होगा और अगर जीवित पौधा हुआ तो वह ट्री गार्ड मेें नहीं होगा। केवल सूखे हुए मृत पौधे ही ट्री गार्ड की शोभा बढाते रहे हैं। जानकार लोग यही कहते हैं कि हमारे यहाँ उन दोनों का एक साथ होना कानून और व्यवस्था के लिए अशुभ है।
राजस्थान में शान्ति और सुख-चैन का प्रबल पक्षधर होने के नाते यह देखकर मेरा खून खौल गया। मैंने एक पुलिस अधीक्षक से कहा-''ठोकिया जैसा कोई डकैत लगता है कि वन विभाग के साथ मिलकर यहाँ बसने की योजना बना रहा है। मैंने ट्री गार्ड में लगे हुए जीवित पौधे अपनी आँखों से देखे हैं। मुझे तो किसी बड़े षडयंत्र की संडाध आ रही है।'' मेरी बात सुनते ही वह तपाक से बोला-''आप फिजूल ही हमारे कर्मठ, निष्ठावान और ईमानदार वन अधिकारियों पर शक कर रहेे हैं। उनके रहते ऐसा कैसे हो सकता है? हो ही नहीं सकता। वे तो बेचारे पौधे लगाने के नाम पर सिर्फ गड्ढे ही खुदवाते है। गलती से भी उस गड्ढे में कोई पौधा उग जाए तो उसे भूलकर भी पानी नहीं पिलाते। पिला भी कैसे सकते हैं? सिर्फ पौधे लगाने का बजट आता है। सिंचाई का तो बजट आता ही नहीं। खैर, फिर भी पता लगाने की कोशिश करते हैं कि किसने ये हरकत किस इरादे से की है? कलेक्टर साहब को भी सूचना कर देता हूँ।''
उसी दिन शाम पाँच बजे डी.एफ.ओ. साहब खुद उपस्थित होकर कलेक्टर साहब को बता रहे थे-''सर मैंने आज ही वे सारे पौधे उखड़वा दिए हैं और सारे ट्री गार्ड जब्त किए जा चुके हैं। सारे रेंजर और फोरेस्ट गार्ड यह पता लगाने में जुट गए हैं कि आखिर ये पौधे लगवाए किसने हैं। इसके पीछे उनका इरादा क्या था? एक दो दिन में सब कुछ पता चल जाएगा। वैसे अनुमान ये है सर, कि पिछले दिनों अचानक हुई बारिश में ये पौधे उग आए होंगे। कुछ शरारती तत्वों ने हमें परेशान करने के इरादे से उन्हें ट्री गार्ड पहना दिए होंंगे। स्टाफ की शॉर्टेज होने की वजह से अपने किसी कर्मचारी की नजर उन पर नहीं पड़ी इसलिए ये इतने जीवित भी रह गए।'' कलेक्टर साहब ने चेहरे पर संतोष का भाव देखते ही उन्होंने जय रेगिस्तान का नारा लगाया और आफिस से बाहर आ गए।
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


सुरेन्द्र दुबे (जयपुर) की पुस्तक
'डिफरेंट स्ट्रोक'
में प्रकाशित व्यंग्य लेख

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