Wednesday, October 7, 2015

फिक्सिंग के पीछे क्या है?

हमारी समझ में कुछ भी नहीं आता था, जब किसी दुर्दान्त बल्लेबाज के आउट होते ही कमेन्ट्रेटर बताता था कि ये नब्बे मिनिट क्रीज पर रहे, कुल छप्पन गेंदों का सामना किया और इन्होंने चार बहुमूल्य रन बनाये।
मैं कतई नहीं समझ पाता था कि वे चार रन बहुमूल्य कैसे थे, लेकिन जब से मैच फिक्सिंग करने वाले खिलाडिय़ों की कलई खुली है तब से हर कोई समझ गया है कि वे चार रन बहुमूल्य ऐसे थे!
बीस से कम रन बनाने पर कम से कम बीस लाख रूपये मिलने का एग्रीमेन्ट था। इसीलिए अगर वह एक रन भी नहीं बनाता तब भी तयशुदा रुपया तो मिल ही जाता। लेकिन क्रीज पर जाते ही मन नहीं माना। आखिर देशभक्ति भी तो कोई चीज होती है, इसलिए चरण कमलों को तकलीफ देनी पड़ी। अन्तत: चार बेशकीमती रनों का योगदान दे ही दिया। इसे कहते हैं देशभक्ति!
दरअसल वे चार रन 'बेशकीमती' नहीं अपितु 'बेसकीमती' थे, क्योंकि उनका बेस बहुत कीमती था। यानि एक बार बाइस गज तेज दौडऩे की कीमत या लागत पाँच लाख रुपये। कुल अट्ठासी गज दौडऩे का मूल्य हुआ, पूरे बीस लाख रुपये। बहुत थकान हुई होगी इतना दौडऩे में हमारे लाड़ले बल्लेबाज को।
हमारे शहर के क्रिकेट विशेषज्ञों की मेरिट में पनवाड़ी के बाद मेरा ही नम्बर आता है। बाद में इसलिए कि जब मैं उसकी दुकान पर खड़ा होकर तर्क लड़ाता हूँ तब वह मुझे फोकट में पान खिलाता है। मेरिट भी इसी दौरान बन रही होती है। अत: मुझे लिहाज में नैतिकतावश दूसरे नम्बर पर रहना पड़ता है। जब मैं खुद मुफ्त के पान के चक्कर में पनवाड़ी का इतना लिहाज रखता हूं तब नैतिकता से ओत-प्रोत हमारे खिलाड़ी लाखों रुपयों का गुप्त लाभ पहुँचाने वाले सटोरियों का लिहाज क्यों न रखें?
अगर आपको यह भ्रम है कि आप क्रिकेट की तमाम बारीकियों से वाकिफ हैं तब आप उस भ्रम को पुख्ता करने के लिए सटोरियों औैर उनके हैरतअंगेज कारनामों के रिकॉड्र्स को भी रट लीजिये, नहीं तो आप क्रिकेट में मिडिलची ही कहलायेंगे। 'मैच फिक्सिंग' इस खेल का एडवान्स कोर्स है अर्थात् एक जरूरी डिप्लोमा। इसे कहते हैं डवलपमेन्ट जो कम से कम क्रिकेट ने ही तो किया है।
सटोरिये भी हमारे खिलाडिय़ों पर पूरी तरह अभिभूत हैं। इतने ऊँचे चरित्र वाले खिलाड़ी उन्हें आसानी से और कहाँ मिल सकते हैं? वे जानते हैं कि उस बल्लेबाज का एग्रीमेंट तो सिर्फ इतना सा था कि उसे बीस लाख रूपयों के बदले बीस से कम रन बनाने थे। उसने न केवल चार ही रन बनाये बल्कि दो साथी खिलाडिय़ों को रन आउट भी करवाया। इस महान योगदान के लिए अतिरिक्त राशि की मांग भी नहीं की। इतना ही नहीं जब तक हार सुनिश्चित नहीं हो गई तब तक पट्ठा मैदान में डटा रहा। बेईमानी का काम पूरी ईमानदारी से करने में हमारे खिलाडिय़ों का कोई जवाब नहीं है।
अब इन सवालों पर चर्चा करके समय बर्बाद करने की कोई जरूरत नहीं रह गई है कि निर्णायक क्षणों में अमुक गेेंदबाज विकेट क्यों नहीं ले पाता है? संकट के समय कप्तान जरूरी गेंदबाज को गेंद क्यों नहीं थमाता है? संघर्ष की बजाय धाकड़ बल्लेबाज नाजुक मोड़ पर क्यों अपना विकेट आसानी से खो देता है? आखिर लिहाज और नैतिकता का ही दूसरा नाम तो मैच फिक्सिंग है।
हम इतने बेवकूफ निकले कि क्रिकेट को युद्ध की तरह देखने लगे और खिलाडिय़ों को सीमा प्र्रहरी सैनिकों जैसा मानने लगे। यह तो अच्छा हुआ कि हमने युद्ध को क्रिकेट की तरह नहीं देखा। वरना हम सैनिकों को भी क्रिकेटरों जैसा समझने लग जाते। तब सचमुच बड़ा अनर्थ हो जाता। क्रिकेटर्स जैसा कहलवाने पर सैनिकों का क्या सम्मान रह जाता। आखिर देशभक्ति और दुकानदारी में अन्तर तो करना ही चाहिए। तभी तो हम छाती ठोक कर कहते हैं कि हम उतने बेवकूफ भी नहीं हैं।
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


सुरेन्द्र दुबे (जयपुर) की पुस्तक
'डिफरेंट स्ट्रोक'
में प्रकाशित व्यंग्य लेख

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