Thursday, October 8, 2015

सपने में सेल्यूलर जेल

वैसे जेल जाना कोई गर्व की बात नहीं है। लेकिन अगर कोई काला पानी की सेल्यूलर जेल गया हो तो इससे ज्यादा गर्व की और कोई बात नहीं हो सकती। सेल्यूलर जेल के बारे में आज का यूथ ज्यादा जानता नहीं है। इसलिए कि पिछले साठ वर्षों में हमें आजादी का इतिहास तो मिला नहीं लेकिन इतिहास को अपनी जरूरत के हिसाब से लिखने की आजादी जरूर मिल गई।
परिणाम ये है कि मैंने एक बच्चे से पूछा-भगतसिंह के बारे में क्या जानते हो? उसने जवाब दिया कि भगतसिंह वह जिसका रोल बॉबी देओल, अजय देवगन और मनोज कुमार ने अलग-अलग फिल्मों में किया है। सचमुच इतिहास के प्रति लापरवाही ने हमारे वर्तमान की ये हालत बना दी है।
हमारे प्रजातंत्र और आजादी की रक्षा के लिए यह जरूरी है कि एक ऐसा कानून जरूर बने जिसमें राजनीति में जाने से पहले हर आदमी के लिए यह जरूरी हो जाए कि वह एक बार पोरबन्दर और एक बार सेल्यूलर जेल अवश्य जाए। वह गाँधीजी के जन्मस्थल तथा सशस्त्र क्रांतिकारियों के वधस्थल पर गए बिना आजादी की अनमोलता को ठीक से नहीं समझ सकता।
लेकिन हमारे देश में प्रजातंत्र का खेल ही अजीब है। यहाँ तंत्र को प्रजा के हिसाब से नहीं चलना पड़ता। प्रजा को तंत्र के इशारों पर चलना पड़ता है। तंत्र काम को नहीं देखता। सर्टिफिकेट को देखता है। काम भले ही आपने किया हो या नहीं, सर्टिफिकेट जरूरी है। फाइल में वही लगता है लिहाजा पोर्टब्लेयर यात्रा के दौरान जब मैं सेल्यूलर जेल देखकर निकला तो मैंने वहाँ के अधिकारी से सर्टिफिकेट माँग लिया। उसने पूछा- किस बात का सर्टिफिकेट? मैंने कहा-इस बात का कि मैं सेल्यूलर जेल में आया था। उसने पूछा-क्या करोगेे? मैंने जवाब दिया समय आने पर स्वतंत्रता सेनानी कहलाने की तिकड़म भिड़ा लूँगा। बाद में कौन देखता है कि मैं कब किस वजह से यहाँ आया? हमारा तंत्र सिर्फ सर्टिफिकेट देखता है। असलियत कहाँ देखता है?
खैर सेल्यूलर जेल देखकर मैं सर्किट हाउस लौटा तो बिस्तर पर लेट गया। लेटते ही मुझे नींद आ गई। नींद में सपना आया। सपने में मुझे लगा कि जैसे भारत में यह कानून बनकर लागू भी हो गया है कि राजनीति में वही आदमी आ सकेगा और रह सकेगा जिसने कम से कम एक बार सेल्यूलर जेल के दर्शन किए हों। लिहाजा वर्तमान और पूर्व नेताओं के जत्थे जेल के दर्शनार्थ आने लगे। इधर जिन क्रांतिकारियों को इस जेल में फाँसी हुई थी मेरे सपने में पुन: जी उठे। उन्होंने जेल का प्रशासन अपने हाथ में ले लिया है। सभी पार्टियों के नेताओं का पहला जत्था ज्योंही जेल में घुसा क्रान्तिकारी फटी-फटी आँखों से उन्हें देखने लगे। एक ने दूसरे से कहा-हमें तो सूचना थी कि हमारे आज के नेता आने वाले हैं। इनकी शक्ल देखकर तो लगता है कि ये नेता नहीं हो सकते। फटाफट इनका रिकार्ड चैक करो। रिकार्ड देखते ही पता चला कि जत्थे के कई माननीय सदस्यों पर हत्या, अपहरण, बलात्कार आदि के कई मुकदमे चल रहे हैं। बस फिर क्या था। एक सीनियर क्रान्तिकारी ने आदेश दिया कि जेल का दरवाजा बन्द कर दो। ध्यान रहे कि ये यहाँ से निकल न जाएँ। अगर ये वापस चले गए तो देश को एक जेल बना देंगे। आजादी और लोकतंत्र के लिए ये बेहद खतरनाक है।
सेल्यूलर जेल का दरवाजा बन्द कर दिया गया। नेता लोग बाहर निकलने के लिए छटपटाने लगे। एक नेता ने तो क्रान्तिकारी अधिकारी को सस्पेन्ड कराने की धमकी भी दे दी। खैर साहब, वह क्रान्तिकारी कोई सरकारी अफसर तो था नहीं इसलिए उसे गुस्सा आ गया। उसने अपने साथियों से कहा-जाओ वह अंग्रेजों वाला हंटर लाओ। इनके साथ वह सब करो जो अंग्रेजों ने हमारे साथ किया था। खैर तभी मेरी नींद खुल गई। सपना टूट गया। काश वह सपना सच हो जाता। लेकिन इतने अच्छे सपने सच कहाँ होते हैं?
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


सुरेन्द्र दुबे (जयपुर) की पुस्तक
'डिफरेंट स्ट्रोक'
में प्रकाशित व्यंग्य लेख

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