अमरिकन और यूरोपीयन कम्पनीज से कम से कम एक गुण तो सीखने लायक है। दरअसल वे बीमारी का नाम, इन्वेस्टीगेशन के इन्स्ट्रूमेंट्स और मेडिसिन्स को एक साथ बेचते हैं। बीमारी के नाम से पैकेज डील बनाते हैं। हमारे मंत्रीजी कुछ न कुछ करने की नई-नई बेताबी के साथ विदेश जाते हैं और नई-नई बीमारी का इलाज खरीद लाते हैं, भलेे ही वह बीमारी यहाँ हो ही नहीं।
एक रात सपने मे मैं स्वास्थ्य मंत्री बना तो ऐेसे ही एक नई-नई अंजान बीमारी का इलाज खरीद लाया। आने पर लोगों ने कहा कि इस बीमारी का नाम तो हमने सुना ही नहीं तो मैंने भी झट कह दिया कि अब अगले कुछ वर्षों तक तुम सिर्फ इसी बीमारी का नाम सुनोगे और तब तक सुनते रहोगे जब तक कि वे हमें बेचने के लिए किसी नई बीमारी और उसके इलाज का एलान नहीं कर देतेे।
वे बेच कर खुश और हम खरीद कर। बीमारियों की इस बीमार खरीद फरोख्त ने विश्व में एक बीमार भाईचारे को जन्म दिया। शामत तो आफिसर्स की आ जाती है। वे उस बीमारी को यहाँ खोजने में जुट जाते हैं। अगर वह बीमारी नहीं भी मिलती तो उससे मिलती-जुलती बीमारी खोज लाते हैं। अगर मिलती जुलती बीमारी भी नहीं मिलती तो फिर वे किसी भी उपलब्ध बीमारी के इलाज में उन उपकरणों और दवाओं को झोंक देते हैं। आखिर बजट का कन्जमशन भी तो आपको लायक सिद्ध करता है।
सबसे बुरी हालत तो डाक्टर्स की है। वे एक बीमारी के इलाज में महारथ हासिल करने की कोशिश कर ही रहे होते है कि नई आयातित बीमारी उनके गले की फाँस बन जाती है। मुझे तो लगता है कि नई-नई आयातित बीमारियों ने उनकी नजर, दिमाग और रवैये को ही बीमार कर दिया है।
पिछले दिनों मैं एक डाक्टर के पास गया। मैंने अपना परिचय देते हुए उसे बताया कि मैं कवि हूँ। इतना सुनते ही उसने मुझे तपाक से पूछ लिया कि आप कब से कवि हैं? यानी ये बीमारी आपको कब से हैं? मैंने पूछा-क्या मतलब? उसने कहा-यानी आपकी उम्र कितनी है? मैंने जवाब दिया-अड़तालीस साल। बीमारी बहुत पुरानी है। पहले कभी कहीं इसका इलाज करवाया? मैंने जवाब दिया नहीं। उसने कहा-तब तो ये बीमारी लाइलाज हो चुकी है। जाओ और बहरों के मोहल्ले में रहनेे लग जाओ। बस यही इलाज है। ऐसा करने के बावजूद ये बीमारी पूरी तरह ठीक तो नहीं होगी लेकिन और ज्यादा बढ़ेगी भी नहीं।
खैर, उनसे मिलकर लौटते हुए मुझे लगा कि देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए एक काम तो हम कर ही सकते हैं। वह यह कि हम नई-नई बीमारियों की ऐलोपैथी में खोज करके विदेशी कम्पनीज को बेच दें। बाद में वे उसका उपचार ढूँढे। जाँच के उपकरण विकसित करें तथा इलाज के लिए दवा बनाकर सारी दुनिया में बेच दें। उनकी भी कमाई और अपनी भी कमाई।
यह दिव्य-विचार आते ही मैंने पाँच-सात बीमारियाँ तो आनन-फानन में ढूँढ निकाली। अब उनके अंग्रेजी नाम रखने की देर है। नाम में अगर एंजीटाइटिस, इन्फ्लेमेशन, मीनिया, सिन्ड्रोम जैसे शब्द जोड़ दो तो और भी अच्छा। जो बीमारियाँ मैंने खोजी उनके बारे में बताता हूँ।
सबसे पहली और बड़ी बीमारी है एज्हसटाइटिस। एज्हस का फुलफार्म है- ए जे एच एस यानी अपने आपको ज्यादा होशियार समझना। बीमारी नहीं ये तो महामारी है। हर कोई इसका शिकार है। दूसरी बीमारी है बीसीडी मीनिया। बीसीडी यानी अपनी हैसियत को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाना। ये बीमारी महिलाओं में ज्यादा पाई जाती है। तीसरी बीमारी आजकल के युवाओं की है। बीमारी का नाम है बीएसएच बीएसजेड। यानी बाहर से हीरो भीतर से जीरो।
सभी बीमारियों की खासियत यह होती है कि आप किसी को भी बीमारी के सिमटम्स बताते हैं तो सुनने वाले को लगता है कि यह बीमारी उसको खुद को भी है। आप भी ऐसी बीमारियों पर मेरी तरह रिसर्च करके विदेशी कम्पनियों को बेच दीजिए। फिर देखते हैं कि रुपए के मुकाबले डालर कितनी देर टिकता है?
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
सुरेन्द्र दुबे (जयपुर) की पुस्तक
'डिफरेंट स्ट्रोक'
में प्रकाशित व्यंग्य लेख
सम्पर्क : 0141-2757575
मोबाइल : 98290-70330
ईमेल : kavidube@gmail.com
एक रात सपने मे मैं स्वास्थ्य मंत्री बना तो ऐेसे ही एक नई-नई अंजान बीमारी का इलाज खरीद लाया। आने पर लोगों ने कहा कि इस बीमारी का नाम तो हमने सुना ही नहीं तो मैंने भी झट कह दिया कि अब अगले कुछ वर्षों तक तुम सिर्फ इसी बीमारी का नाम सुनोगे और तब तक सुनते रहोगे जब तक कि वे हमें बेचने के लिए किसी नई बीमारी और उसके इलाज का एलान नहीं कर देतेे।
वे बेच कर खुश और हम खरीद कर। बीमारियों की इस बीमार खरीद फरोख्त ने विश्व में एक बीमार भाईचारे को जन्म दिया। शामत तो आफिसर्स की आ जाती है। वे उस बीमारी को यहाँ खोजने में जुट जाते हैं। अगर वह बीमारी नहीं भी मिलती तो उससे मिलती-जुलती बीमारी खोज लाते हैं। अगर मिलती जुलती बीमारी भी नहीं मिलती तो फिर वे किसी भी उपलब्ध बीमारी के इलाज में उन उपकरणों और दवाओं को झोंक देते हैं। आखिर बजट का कन्जमशन भी तो आपको लायक सिद्ध करता है।
सबसे बुरी हालत तो डाक्टर्स की है। वे एक बीमारी के इलाज में महारथ हासिल करने की कोशिश कर ही रहे होते है कि नई आयातित बीमारी उनके गले की फाँस बन जाती है। मुझे तो लगता है कि नई-नई आयातित बीमारियों ने उनकी नजर, दिमाग और रवैये को ही बीमार कर दिया है।
पिछले दिनों मैं एक डाक्टर के पास गया। मैंने अपना परिचय देते हुए उसे बताया कि मैं कवि हूँ। इतना सुनते ही उसने मुझे तपाक से पूछ लिया कि आप कब से कवि हैं? यानी ये बीमारी आपको कब से हैं? मैंने पूछा-क्या मतलब? उसने कहा-यानी आपकी उम्र कितनी है? मैंने जवाब दिया-अड़तालीस साल। बीमारी बहुत पुरानी है। पहले कभी कहीं इसका इलाज करवाया? मैंने जवाब दिया नहीं। उसने कहा-तब तो ये बीमारी लाइलाज हो चुकी है। जाओ और बहरों के मोहल्ले में रहनेे लग जाओ। बस यही इलाज है। ऐसा करने के बावजूद ये बीमारी पूरी तरह ठीक तो नहीं होगी लेकिन और ज्यादा बढ़ेगी भी नहीं।
खैर, उनसे मिलकर लौटते हुए मुझे लगा कि देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए एक काम तो हम कर ही सकते हैं। वह यह कि हम नई-नई बीमारियों की ऐलोपैथी में खोज करके विदेशी कम्पनीज को बेच दें। बाद में वे उसका उपचार ढूँढे। जाँच के उपकरण विकसित करें तथा इलाज के लिए दवा बनाकर सारी दुनिया में बेच दें। उनकी भी कमाई और अपनी भी कमाई।
यह दिव्य-विचार आते ही मैंने पाँच-सात बीमारियाँ तो आनन-फानन में ढूँढ निकाली। अब उनके अंग्रेजी नाम रखने की देर है। नाम में अगर एंजीटाइटिस, इन्फ्लेमेशन, मीनिया, सिन्ड्रोम जैसे शब्द जोड़ दो तो और भी अच्छा। जो बीमारियाँ मैंने खोजी उनके बारे में बताता हूँ।
सबसे पहली और बड़ी बीमारी है एज्हसटाइटिस। एज्हस का फुलफार्म है- ए जे एच एस यानी अपने आपको ज्यादा होशियार समझना। बीमारी नहीं ये तो महामारी है। हर कोई इसका शिकार है। दूसरी बीमारी है बीसीडी मीनिया। बीसीडी यानी अपनी हैसियत को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाना। ये बीमारी महिलाओं में ज्यादा पाई जाती है। तीसरी बीमारी आजकल के युवाओं की है। बीमारी का नाम है बीएसएच बीएसजेड। यानी बाहर से हीरो भीतर से जीरो।
सभी बीमारियों की खासियत यह होती है कि आप किसी को भी बीमारी के सिमटम्स बताते हैं तो सुनने वाले को लगता है कि यह बीमारी उसको खुद को भी है। आप भी ऐसी बीमारियों पर मेरी तरह रिसर्च करके विदेशी कम्पनियों को बेच दीजिए। फिर देखते हैं कि रुपए के मुकाबले डालर कितनी देर टिकता है?
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
सुरेन्द्र दुबे (जयपुर) की पुस्तक
'डिफरेंट स्ट्रोक'
में प्रकाशित व्यंग्य लेख
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