रेल बजट प्रस्तुत करते हुए रेलमंत्री ने कॉलेज में पढने वाली लड़कियों को मुफ्त रेल यात्रा का तोहफा दिया। लड़कियोंं को तो सभी तोहफा देते हैं। यही तोहफा लड़कों को भी मिलना चाहिए। लेकिन महिला सशक्तिकरण तभी तो होगा जब लड़कियों को रेलवे का फ्री पास मिलेगा और लड़कों को किराया देना पड़ेगा। इससे मैं यह समझ पाया कि हमारे यहाँ महिला सशक्तिकरण पुरुष अशक्तिकरण पर निर्भर करता है।
महिला सशक्तिकरण की सरकारी योजनाओं का रिजल्ट यह आया कि मेरे घर में पुरुष निशक्तिकरण का अभियान शुरू हो गया। अपनी ही पत्नी के सामने अब मेरी हालत ठीक वैसी है जैसी कि शेरनी के पिंजरे में बांध दिए गए बकरे की होती है। वह अक्सर मुझे कह देती है कि आप में तो अक्ल नहीं है और मैं सिर झुकाकर कहता हूँ-सही बात है। वैसे ही घर-गिरहस्ती के मामलों मेें महिलाएँ ज्यादा होशियार होती है तथा पुरुष एकदम फिसड्डी। कारण यह है कि घर में घुसते ही पुरुष की हस्ती गिर जाती है, इसलिए घर की व्यवस्था घर गिरहस्ती कही जाती है।
पुरूषों की दुर्दशा पर सोचते-सोचते मुझे नींद आ गई। सपने में मेरी रेलमंत्री से भेंट हुई। मैंने उनसे पूछा कि आपकी सरकार महिलाओं की इतनी हितैषी है तो फिर लोक सभा में महिला आरक्षण का विधेयक क्यों पास नहीं करवा पाई। उन्होंने जवाब दिया देखो इसमेें एक टेक्नीकल अड़चन है। ये बिल पास होने पर लोक सभा और विधान सभाओं की तेंतीस प्रतिशत सीट्स महिलाओं के लिए आरक्षित हो जाएगी। फिर हमें ऐसे ही तेंतीस प्रतिशत सीट्स पुरूषों के लिए भी आरक्षित करनी पड़ेगी। ऐसे में टेक्नीकल प्रॉब्लम ये है कि बची हुई चोंतीस प्रतिशत सीट्स पर जो लोग चुनकर आएंगे, वे क्या कहलाएँगे?
महिला सशक्तिकरण की योजनाओं का सबसे ज्यादा नुकसान मुझे हुआ। क्योंकि मेरी पत्नी जरूरत से ज्यादा सशक्त हो गई। सशक्त होते ही उसका बौद्धिक स्तर पहलवानों के बराबर हो गया। कल ही मुझे उपदेश देते हुए कहने लगी कि ''जब तक आप महाकवि तुलसीदासजी की भाँति पत्नी के प्रति अपने मन में प्यार की भावना नहीं जगाओगे तब तक बड़े कवि नहीं कहलाओगे।'' मैंने कहा कि मैं भी तो पत्नी से खूब प्यार करता हूँ! वह बोली-''खुद की पत्नी से प्यार करो तो जानूँ।''
अपनी कमजोर नस पकड़ में आते देख मैंने भी आक्रामक नीति अपना ली। कहते हैं कि आक्रमण ही सुरक्षा की सर्वश्रेष्ठ तकनीक है। इसलिए मैंने उससे पूछा-''तुम्हेें किसने कहा कि तुलसीदास जी अपनी पत्नी से प्यार करते थे?'' वह बोली-''कौन नहीं जानता कि तुलसीदास जी की पत्नी रूठकर मायके चली गई थी तो वे भी उसको मनाने के लिए पीछे-पीछे चल दिए। पहले तो जान जोखिम डाल कर उफनती हुई नदी को पार किया। रात के अंधेरे में ससुराल पहुँचे तो बालकनी से साँप लटक रहा था। वे उसे रस्सा समझकर उसी के सहारे बालकनी में चढ़ गए। इसे कहते हैं अपनी पत्नी के प्रति सच्चा प्यार।''
मैंने कहा-''री बावली। तुम इस कहानी को ठीक से समझ ही नहीं पाई। वे पत्नी को मनाने नहीं गए होंगे। मना करने गए होंगे। मुझे तो ऐसा लगता है कि उन्होंने साँप को रस्सा समझ कर नहीं, साँप समझकर ही पकड़ा होगा। सोचा होगा कि गुस्साई पत्नी से सामना हो इससे अच्छा है कि उससे पहले साँप ही काट खाए। लेकिन शायद साँप ने भी कह दिया होगा कि मेरे काट खाने से तुम्हारी जान नहीं जाएगी। तुम तो वहीं जाओ। वह ही तुम्हारा दिमाग खाएगी। तब बेचारे तुलसीदास जी क्या करते?''
खैर, महिलाओं के पक्ष में कानूनी प्रावधानों की संख्या इतनी तेजी से बढ़ी जितनी तेजी से तो खुद महिलाओं की संख्या नहीं बढ़ी। आपने राष्ट्रीय महिला आयोग, महिला वर्ष, महिला दिवस के बारे में तो सुना या पढ़ा होगा लेकिन राष्ट्रीय पुरूष आयोग, पुरुष वर्ष, पुरुष दिवस के बारे में कभी कोई चर्चा भी नहीं सुनी होगी। मैं तो सरकार से कहता हूँ कि महिला दिवस की तरह पुरुष का दिवस भले ही मत मनाओ 'पुरुष रात्रि' ही मना लो। लेकिन मेरी बात को सुनने वाला कोई नहीं है क्योंकि लिए समाज के माथे पर कन्या भ्रूणहत्या का कलंक लगा हुआ हो उसमें यह सब तो होना ही है। महिलाओं के लिए आयोग और पुरुषों के लिए अभियोग।
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
सुरेन्द्र दुबे (जयपुर) की पुस्तक
'डिफरेंट स्ट्रोक'
में प्रकाशित व्यंग्य लेख
सम्पर्क : 0141-2757575
मोबाइल : 98290-70330
ईमेल : kavidube@gmail.com
महिला सशक्तिकरण की सरकारी योजनाओं का रिजल्ट यह आया कि मेरे घर में पुरुष निशक्तिकरण का अभियान शुरू हो गया। अपनी ही पत्नी के सामने अब मेरी हालत ठीक वैसी है जैसी कि शेरनी के पिंजरे में बांध दिए गए बकरे की होती है। वह अक्सर मुझे कह देती है कि आप में तो अक्ल नहीं है और मैं सिर झुकाकर कहता हूँ-सही बात है। वैसे ही घर-गिरहस्ती के मामलों मेें महिलाएँ ज्यादा होशियार होती है तथा पुरुष एकदम फिसड्डी। कारण यह है कि घर में घुसते ही पुरुष की हस्ती गिर जाती है, इसलिए घर की व्यवस्था घर गिरहस्ती कही जाती है।
पुरूषों की दुर्दशा पर सोचते-सोचते मुझे नींद आ गई। सपने में मेरी रेलमंत्री से भेंट हुई। मैंने उनसे पूछा कि आपकी सरकार महिलाओं की इतनी हितैषी है तो फिर लोक सभा में महिला आरक्षण का विधेयक क्यों पास नहीं करवा पाई। उन्होंने जवाब दिया देखो इसमेें एक टेक्नीकल अड़चन है। ये बिल पास होने पर लोक सभा और विधान सभाओं की तेंतीस प्रतिशत सीट्स महिलाओं के लिए आरक्षित हो जाएगी। फिर हमें ऐसे ही तेंतीस प्रतिशत सीट्स पुरूषों के लिए भी आरक्षित करनी पड़ेगी। ऐसे में टेक्नीकल प्रॉब्लम ये है कि बची हुई चोंतीस प्रतिशत सीट्स पर जो लोग चुनकर आएंगे, वे क्या कहलाएँगे?
महिला सशक्तिकरण की योजनाओं का सबसे ज्यादा नुकसान मुझे हुआ। क्योंकि मेरी पत्नी जरूरत से ज्यादा सशक्त हो गई। सशक्त होते ही उसका बौद्धिक स्तर पहलवानों के बराबर हो गया। कल ही मुझे उपदेश देते हुए कहने लगी कि ''जब तक आप महाकवि तुलसीदासजी की भाँति पत्नी के प्रति अपने मन में प्यार की भावना नहीं जगाओगे तब तक बड़े कवि नहीं कहलाओगे।'' मैंने कहा कि मैं भी तो पत्नी से खूब प्यार करता हूँ! वह बोली-''खुद की पत्नी से प्यार करो तो जानूँ।''
अपनी कमजोर नस पकड़ में आते देख मैंने भी आक्रामक नीति अपना ली। कहते हैं कि आक्रमण ही सुरक्षा की सर्वश्रेष्ठ तकनीक है। इसलिए मैंने उससे पूछा-''तुम्हेें किसने कहा कि तुलसीदास जी अपनी पत्नी से प्यार करते थे?'' वह बोली-''कौन नहीं जानता कि तुलसीदास जी की पत्नी रूठकर मायके चली गई थी तो वे भी उसको मनाने के लिए पीछे-पीछे चल दिए। पहले तो जान जोखिम डाल कर उफनती हुई नदी को पार किया। रात के अंधेरे में ससुराल पहुँचे तो बालकनी से साँप लटक रहा था। वे उसे रस्सा समझकर उसी के सहारे बालकनी में चढ़ गए। इसे कहते हैं अपनी पत्नी के प्रति सच्चा प्यार।''
मैंने कहा-''री बावली। तुम इस कहानी को ठीक से समझ ही नहीं पाई। वे पत्नी को मनाने नहीं गए होंगे। मना करने गए होंगे। मुझे तो ऐसा लगता है कि उन्होंने साँप को रस्सा समझ कर नहीं, साँप समझकर ही पकड़ा होगा। सोचा होगा कि गुस्साई पत्नी से सामना हो इससे अच्छा है कि उससे पहले साँप ही काट खाए। लेकिन शायद साँप ने भी कह दिया होगा कि मेरे काट खाने से तुम्हारी जान नहीं जाएगी। तुम तो वहीं जाओ। वह ही तुम्हारा दिमाग खाएगी। तब बेचारे तुलसीदास जी क्या करते?''
खैर, महिलाओं के पक्ष में कानूनी प्रावधानों की संख्या इतनी तेजी से बढ़ी जितनी तेजी से तो खुद महिलाओं की संख्या नहीं बढ़ी। आपने राष्ट्रीय महिला आयोग, महिला वर्ष, महिला दिवस के बारे में तो सुना या पढ़ा होगा लेकिन राष्ट्रीय पुरूष आयोग, पुरुष वर्ष, पुरुष दिवस के बारे में कभी कोई चर्चा भी नहीं सुनी होगी। मैं तो सरकार से कहता हूँ कि महिला दिवस की तरह पुरुष का दिवस भले ही मत मनाओ 'पुरुष रात्रि' ही मना लो। लेकिन मेरी बात को सुनने वाला कोई नहीं है क्योंकि लिए समाज के माथे पर कन्या भ्रूणहत्या का कलंक लगा हुआ हो उसमें यह सब तो होना ही है। महिलाओं के लिए आयोग और पुरुषों के लिए अभियोग।
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
सुरेन्द्र दुबे (जयपुर) की पुस्तक
'डिफरेंट स्ट्रोक'
में प्रकाशित व्यंग्य लेख
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